भारत में चल रहा है कंपनी राज!

डिजिटल इंडिया से न्यू इंडिया की संकल्पना आजकल सरकार की प्रमुखता में है. इसके प्रचार-प्रसार के लिए काफी धनराशि खर्च की जा रही है. हालांकि अभी भी हमारा देश कई चुनौतियों से जूझ रहा है जिनमें आतंकवाद, नक्सलवाद तो गंभीर समस्यायें हैं ही, इसके अतिरिक्त भी भारतीय नागरिक कई प्रकार के विषम और कठिन दौर का सामना कर रहे है.

देश में आजादी से पहले और आजादी के बाद कुछ कार्य ऐसे हैं जिनको हमारी सरकारें अभी तक पूर्ण रुप से संपन्न नहीं कर पायी हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य जो किसी भी राष्ट्र की मूल समस्या तो होती है. एक समृद्ध राष्ट्र की पहचान देश की बेहतर शिक्षा प्रणाली और बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं से भी आंकी जाती है. आज का बच्चा कल का नागरिक होता है. कल देश को संभालने की जिम्मेदारी भी आज के नौनिहालों के हाथ में ही होती है.

देश का भविष्य वर्तमान में गहरे संकट में नजर आ रहा है. कुपोषण और इलाज के अभाव में हर साल लाखों बच्चे मौत के मुंह में समा जाते है. और इन मौतों को अगस्त महीने की पारंपरिक मौत कह कर देश के राजनेता क्रूर मजाक करने से बाज नहीं आते है. देश का हर क्षेत्र अमीर-गरीब, ऊंच-नींच और असमानता की खाइयों से भरा नजर आता है. गरीब का वोट तो कीमती होता है मगर गरीब की और उनके बच्चों की कोई कीमत नहीं होती है. अगर होती तो गोरखपुर के बाबा राघवदास मेडिकल कालेज और सैफई का मेडिकल कालेज गरीब बच्चों की कब्रगाह नहीं बनता. जहां आक्सीजन की कमी से सैकड़ों बच्चे अकाल मौत के मुँह में समा जाते हैं और संवेदना व्यक्त कर सरकार अपनी जिम्मेदारी से विमुख हो जाती है.

किसके सपनों का भारत बनाना चाहते हैं हम? खून-पसीने से देश को सींचने वालों का या खून चूसने वालों का? आंकडों पर नजर डाली जाये तो सरकार स्कूलों में पढ़ने वाले और सरकारी अस्पतालों में मरने वाले अधिकांश गरीब और वंचित तबके के ही लोग होते है. ऐसा लगता है देश का गरीब राम भरोसे और देश का अमीर सरकार भरोसे है. ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह भारत में इस वक्त कंपनी का ही राज चल रहा है. निजीकरण के नाम पर उद्योगपतियों को सरकार निरंतर मजबूत कर रही हैं. पर गरीबी हटाने में हम सफल तो नही हुए हैं मगर गरीब को ही हटाने का अच्छा तरीका भारत के स्वास्थ्य महकमें और खाद्य महकमें ने इजाद कर लिया है!

राष्ट्र भक्ति और देश प्रेम के नारे तो लगवाये जाते हैं मगर भूखे पेट कोई देश भक्त नहीं हो सकता, ये सच्चाई भी स्वीकार करनी पड़ेगी. वोट की कीमत अगर बराबर होती तो गरीब और अमीर के बीच प्रथम चुनाव से लेकर अब तक अमीर और गरीब के बीच धरती और आसमान का फर्क नहीं होता. एक ओर बुलेट ट्रेन की सौगात और दूसरी तरफ कहीं एक साइकिल चलाने का भी रास्ता नहीं है. जबकि ये हकीकत है कि भारत गांव का देश है और 70 प्रतिशत जनता कृषि पर निर्भर है. लेकिन किसान आत्म हत्या कर रहा है. अमीर के लिए बुलेट ट्रेन लाई जा रही है. क्या इस बुलेट ट्रेन में देश का वो गरीब मजदूर और किसान भी सफर कर पायेगा जिसने सरकारों से अपने लिए भी कुछ सपने देख कर बढ़चढ़ कर वोट किया था.

मेरा मकसद विकास को कोसना नहीं है मगर असमानता की खाई भी विकास के साथ-साथ कम होनी चाहिए. संचार क्रांति और सोशल मीडिया से जहां समाज की मीडिया से निर्भरता कम हुई है. वहीं डाटा और आटा में भी संतुलन बनाने की जरूरत है. डाटा निरंतर सस्ते पे सस्ता होता जा रहा है और वहीं गरीब मजदूर आटे-दाल के भाव देखकर चिंतित है. संतुलित आहार जिस प्रकार शरीर के लिए आवश्यक है उसी प्रकार संतुलित विकास भी देश के चहुमुखी विकास के लिए भी आवश्यक है.

यह लेख आईपी हृयूमन ने लिखा है.

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