क्रिसमस पर विशेषः सलीब पर टंगी भारतीय दलित ईसाईयों की जिंदगी

कैथलिक चर्च ने अपने ‘पॉलिसी ऑफ दलित इम्पावरन्मेंट इन द कैथलिक चर्च इन इंडिया’रिपोर्ट में यह मान लिया है कि चर्च में दलितों से छुआछूत और भेदभाव बड़े पैमाने पर मौजूद है इसे जल्द से जल्द खत्म किए जाने की जरूरत है.’ हालांकि इसकी यह स्वीकारोक्ति नई बोतल में पुरानी शराब भरने जैसी ही है. फिर भी दलित ईसाइयों को उम्मीद है कि भारत के कैथलिक चर्च की स्वीकारोक्ति के बाद वेटिकन और संयुक्त राष्ट्र में उनकी आवाज़ सुनी जाएगी.

आज क्रिसमस सबसे बड़ा ग्लोबल त्योहार बन गया है. क्या यह भी अब एक खोखला आयोजन बन कर नहीं रह गया है? ईसा मसीह ने दुनिया को शांति का संदेश दिया था. लेकिन गरीब ईसाइयों के जीवन में अंधेरा कम नहीं हो रहा. अगर समुदाय में शांति होती तो आज दलित-आदिवासी ईसाई की स्थिति इतनी दयनीय नहीं होती.

आज झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और असम के आदिवासी अन्य जाति-समुदायों से काफी पिछड़े और उपेक्षित हैं. लाखों की संख्या में आदिवासी युवक-युवतियां दिल्ली और मुंबई में घरेलू नौकर-नौकरानी अथवा आया का काम कर रही हैं. केवल दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में ही आया का काम करने वालों में 92 प्रतिशत महिलाएं- युवतियां ईसाई हैं, जबकि गैर ईसाई आदिवासी यानी सरना महिलाओं की संख्या मात्र 2 प्रतिशत है इसका मतलब यह है कि ईसाई चर्च/ मंडली की व्यवस्था व प्रणाली से आदिवासियों को पूरी तरह आर्थिक एवं शैक्षणिक लाभ नहीं मिल रहा है जिसके कारण उन्हें शहरों की ओर जाना पड़ रहा है.

अगर छोटानागपुर क्षेत्र में आदिवासियों के लिए रोजगार नहीं है और वे सुविधाविहीन हैं तो इसके लिए केवल सरकार और राजनेताओं को दोष नहीं दिया जा सकता. ईसाई धर्म विशेषकर कैथलिक चर्च के अधिकारियों की जिम्मेदारी बनती थी कि वे अपने धर्म के सदस्यों के लिए आर्थिक सुविधाओं के साथ मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था करते, लेकिन यह जिम्मेदारी उन्होंने ढंग से नहीं निभाई. सच कहा जाए तो दलित – आदिवासियों को विकास की राह पर लाने में चर्च के अधिकारी पूरी तरह असफल रहे हैं. चर्च का उद्देश्य सिर्फ ईसाइयों की संख्या बढ़ाना नहीं होना चाहिए.

भारत में सदियों से ऊंच-नीच, असमानता और भेदभाव का शिकार रहे करोडों दलितों आदिवासियों और सामाजिक हाशिए पर खड़े लोगों ने चर्च / क्रूस को चुना है लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि चर्च उनके जीवन स्तर को सुधारने की जगह अपने साम्राज्यवाद के विस्तार में व्यस्त है. विशाल संसाधनों से लैस चर्च अपने अनुयायियों की स्थिति से पल्ला झाड़ते हुए उन्हें सरकार की दया पर छोडना चाहता है. दरअसल चर्च का इरादा एक तीर से दो शिकार करने का है. कुल ईसाइयों की आबादी का आधे से ज्यादा अपने अनुयायियों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में रखवा कर वह इनके विकास की जिम्मेदारी सरकार पर डालते हुए देश की कुल आबादी के पाचवें हिस्से हिन्दू दलितों को ईसाइयत का जाम पिलाने का ताना-बाना बुनने में लगा है. यीशु के सिद्धांत कहीं पीछे छूट गए हैं. चर्च आज साम्राज्यवादी मानसिकता का प्रतीक बन गया है आैर आज उनका जीवन क्रूस पर टंगा हुआ है.

आज भारत में कैथोलिक चर्च के 6 कार्डिनल है पर कोई दलित नहीं, 30 आर्च बिशप में  कोई दलित नहीं, 175 बिशप में केवल 9 दलित है. 822 मेजर सुपिरयर में 12 दलित है, 25000 कैथोलिक पादरियों में 1130 दलित ईसाई है. इतिहास में पहली बार भारत के कैथलिक चर्च ने यह स्वीकार किया है कि जिस छुआछूत और जातिभेद के दंश से बचने को दलितों ने हिंदू धर्म को त्यागा था, वे आज भी उसके शिकार हैं. वह भी उस धर्म में जहां कथित तौर पर उनको वैश्विक ईसाईयत में समानता के दर्जे और सम्मान के वादे के साथ शामिल कराया गया था. कैथलिक चर्च ने अपने ‘पॉलिसी ऑफ दलित इम्पावरन्मेंट इन द कैथलिक चर्च इन इंडिया’ रिपोर्ट में यह मान लिया है कि चर्च में दलितों से छुआछूत और भेदभाव बड़े पैमाने पर मौजूद है इसे जल्द से जल्द खत्म किए जाने की जरूरत है.’ हालांकि इसकी यह स्वीकारोक्ति नई बोतल में पुरानी शराब भरने जैसी ही है. फिर भी दलित ईसाइयों को उम्मीद है कि भारत के कैथलिक चर्च की स्वीकारोक्ति के बाद वेटिकन और संयुक्त राष्ट्र में उनकी आवाज़ सुनी जाएगी.

कुछ समय पहले दलित ईसाइयों के एक प्रतिनिधिमंडल ने संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून के नाम एक ज्ञापन देकर आरोप लगाया कि कैथोलिक चर्च और वेटिकन दलित ईसाइयों का उत्पीड़न कर रहे है. जातिवाद के नाम पर चर्च संस्थानों में दलित ईसाइयों के साथ लगातार भेदभाव किया जा रहा है. कैथोलिक बिशप कांफ्रेस ऑफ इंडिया और वेटिकन को बार बार दुहाई देने के बाद भी चर्च उनके अधिकार देने को तैयार नहीं है. संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून को दिए ज्ञापन में मांग की कि वह चर्च को अपने ढांचे में जातिवाद के नाम पर उनका उत्पीड़न करने से रोके और अगर चर्च ऐसा नही करता तो संयुक्त राष्ट्र में वेटिकन को मिले स्थाई अबर्जवर के दर्जें को समाप्त कर दिया जाना चाहिए.

अब चर्च के लिए आत्ममंथन का समय आ गया है. चर्च को भारत में अपने मिशन को पुनर्परिभाषित करना होगा. भारत में चर्च को जितनी सुविधाएं प्राप्त है, उतनी तो उन्हें यूरोप तथा अमेरिका में भी नहीं मिलतीं. विशेष अधिकार से शिक्षण संस्थान चलाने, सरकार से अनुदान पाने आदि  वे सहूलियतों शामिल हैं. आज देश की तीस प्रतिशत शिक्षा एवं बाईस प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर चर्च का अधिकार है. भारत सरकार के बाद चर्च के पास भूमि है और वह भी देश के पाश इलाकों में. सरकार के बाद चर्च रोजगार उपलब्ध करवाने वाला सबसे बड़ा संस्थान है इसके बावजूद उसके अनुयायियों की स्थिति दयनीय बनी हुई है.

ईसाइयों को धर्म और सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति एक स्पष्ट समझ बनाने की आवश्यकता है. ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, गुजरात, बिहार, झारखंड़,कर्नाटक,आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पूर्वी राज्य या यो कहे कि पूरे भारत में ईसाइयों के रिश्ते दूसरे धर्मों से सहज नहीं रहे हैं. धर्मांतरण को लेकर अधिकतर राज्यों में दोनों वर्गों के बीच तनाव पनप रहा है और चर्च का एक वर्ग इन झंझावतों को समाप्त करने के स्थान पर इन्हें विदेशों में हवा देकर अपने हित साध रहा है. शांति के पर्व क्रिसमस पर ईसाइयों को अब इस बात पर आत्ममंथन करने की जरुरत है कि उनके रिश्ते दूसरे धर्मों से सहज कैसे बने रह सकते हैं और भारत में वे अपने अनुयायियों के जीवन स्तर को कैसे सुधार सकते हैं.

संसाधनों के बल पर चर्च ने भले ही सफलता पा ली हो, लेकिन ईसा मसीह के सिद्धांतों से वह दूर हो गया है. आज चर्च की सफलता और ईसा के सिद्धांत दोनों अलग-अलग कैसे हो गये हैं. यह ठीक उसी प्रकार से जैसे कि भले समारितान की कथा में प्राथमिकता में आये पुरोहित ‘पादरी’ ने डाकूओं से लूटे-पीटे गये घायल व्यक्ति यहूदी भाई को नजर अंदाज कर दिया था. यीशु ने मनुष्य को जगत की ज्योति बताया है. उन्होंने कहा कि कोई दीया जलाकर पैमाने के नीचे नहीं बल्कि दीवार पर रखते है ताकि सबको प्रकाश मिले. इसका अर्थ है कि हम अपनों को नजरअंदाज न करें. आज चर्च में भले ही विश्वव्यापी सफलता पा ली हो, पर वह अपने ही घर में वंचितों की सुध लेने में असफल रहा है, क्योंकि वह अपने व्यापार में व्यस्त है.

लेखक पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट के अध्यक्ष हैं.

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