जाति: भारत से ब्रिटेन तक

रिटेन में जातिगत भेदभाव के विरूद्ध कानून बनाने की मांग और इसकी कोशिशों के विरोध ने एक बार फिर जाति-व्यवस्था और इसके पोषकों, समर्थकों के बारे में सोचने को विवश किया है. भारतीय, विशेष रूप से हिंदू समाज में जाति, जातिवाद, जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता के अस्तित्व के बावजूद देश में यह कहने या दावा करने वालों की कमी नहीं है कि समाज में आज जाति की कोई प्रासंगिकता नहीं रह गयी है. जाति और तदजनित ऊंच-नीच का भेदभाव और अस्पृश्यता जैसी कोई बात अब समाज में नहीं रह गयी है. यह केवल दूर-दराज गांवों में अशिक्षित, अर्द्ध-शिक्षित लोगों में ही थोड़ी बहुत जीवित है. शिक्षा और आर्थिक विकास के साथ-साथ यह वहां पर भी समाप्त हो जाएगी. उनके तर्क का आधार यह है कि भारतीय समाज में जाति की बुराई का कारण शिक्षा की कमी के कारण रही. जहां-जहां तक शिक्षा का प्रसार हो रहा है जाति अपना अस्तित्व खोती जा रही है. इसके समर्थन में कई उदाहरण भी दिए जाते हैं. इस प्रकार के दावे और कथन प्राय: सवर्ण हिंदुओं द्वारा किए जाते हैं.

समाज से जाति के उन्मूलन का दावा करने वाले लोग गर्व के साथ यह बताना भी नहीं भूलते कि हम दलितों के साथ कोई भेदभाव नहीं करते, उनके घर जाते हैं, उनके साथ उठते-बैठते और खाते-पीते हैं. दलितों को अपने घरों में वे कितना बुलाते हैं, कितना खिलाते-पिलाते हैं. दलितों के घरों में जाकर मांस और मदिरा सेवन का सुख प्राप्त करने वाले सवर्ण क्या अपने घरों में भी उसी प्रकार दलितों को मांस और मदिरा का सेवन कराते हैं. प्रश्न यह है कि जितने अधिकार और स्वतंत्रता से सवर्ण लोग दलितों के घरों में जाते हैं और जितना सम्मान पाते हैं क्या उतने ही अधिकार और स्वतंत्रता से दलित उनके घरों में आते-जाते हैं या आ-जा सकते हैं. क्या सवर्णों द्वारा अपने घरों में दलितों को उतना ही सम्मान दिया जाता है, जितना वे दलितों के घरों में पाते हैं. यदि ऐसा नहीं है तो फिर उनके बीच समानता कैसी है. फिर किस आधार पर कहा जा सकता है कि जातिगत भेदभाव समाप्त हो गया है. सवर्णों द्वारा दलितों के घर जाकर उनके साथ बैठकर खाने-पीने मात्र से जातिगत भेदभाव को समाप्त हुआ नहीं माना जा सकता.

जहां तक अशिक्षा को जातिगत भेदभाव का आधार मानने का प्रश्न है, यह एक निहायत खोखला तर्क है. भारत से इंग्लैण्ड, अमेरिका और अन्य देशों में उच्च शिक्षा, रोजगार और व्यापार के लिए जाने वाले लोग प्राय: शिक्षित हैं. और इन देशों में काले-गोरे रंग के आधार पर नस्लीय भेदभाव भले ही है, किंतु एक ही जैसे रंग रूप वाले लोगों के बीच जाति जैसा कोई भेदभाव और अस्पृश्यता वहां पर नहीं है. यह भी एक सच है कि भारत से विदेशों में जाकर नौकरी, व्यापार करने वाले अधिकांश लोग उच्च जातीय हैं. प्रारम्भ में तो सब के सब वही जाते थे. बाबासाहेब आम्बेडकर के लम्बे और कठिन संघर्ष के परिणामस्वरूप स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात दलितों को शिक्षा के अवसर मिले और उनकी आर्थिक स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ तो कुछ दलित भी दूसरों की देखादेखी अब विदेशों में जाने लगे हैं. सदियों से जातिगत घृणा, अपमान, उपेक्षा और उत्पीड़न की मार झेलने वाले दलित समाज का कोई भी व्यक्ति जाति को अपनाना नहीं चाहता, अपितु वह इससे मुक्त होना चाहता है. समाज में इस बात के अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जहां दलितों ने अपनी जाति छिपायी है. कई दलित लेखकों ने इस तथ्य को अपनी आत्मकथाओं या आत्म-कथ्यों में अभिव्यक्त किया है. बाबासाहेब आम्बेडकर को बड़ौदा राज्य की नौकरी के दौरान रहने के लिए मकान नहीं मिलने के कारण अपनी जाति छिपाकर रहना पड़ा था. यह स्थिति आज भी है. दलितों के लिए अपनी जाति छिपाकर सवर्णों के बीच रहना सरल नहीं है, क्योंकि बाद में सच्चाई पता चलने पर उनको जिस अपमान और जिल्लत का सामना करना पड़ता है वह कष्टपूर्ण मौत से भी बढकर है. और प्राय: ऐसा होता है. बाबासाहेब आम्बेडकर के साथ भी ऐसा ही हुआ था.

ब्रिटेन में जातिगत भेदभाव के खिलाफ कानून की मांग और कोशिश इस बात का प्रमाण है कि ब्रिटेन में जातिगत भेदभाव है और यह भेदभाव किन्हीं अन्य समुदायों के बीच नहीं भारत से वहां पर गए सवर्ण हिंदुओं द्वारा दलितों के साथ किया जाता है. क्योंकि ब्रिटिश समाज में जाति-भेद और अस्पृश्यता नहीं है. नस्ल भेद के आधार पर समस्त भारतीय उनके लिए हीन हैं, क्योंकि वे गोरे नहीं, काले या गेहुंए हैं. नस्ल भेदीय दृष्टि से सवर्ण और दलित में कोई भेद नहीं है क्योंकि दोनों एक ही रंग के हैं. हालांकि जातिगत भेदभाव के खिलाफ कानून बनाने की प्रक्रिया ब्रिटेन में शुरू हुई है, किंतु अमेरिका, जर्मनी, कनाडा आदि अनेक देशों में, जहां पर भारतीय काफी संख्या में हैं, भी सवर्ण हिंदुओं द्वारा दलितों के साथ इसी प्रकार का जातिगत भेदभाव किया जाता है. जातिगत भेदभाव का सबसे बड़ा प्रमाण अमेरिका से प्रकाशित होने वाली पत्रिका प्रवासी टाइम्स है, जिसमें अन्य सामग्री के साथ वैवाहिक विज्ञापन भी प्रकाशित होते हैं. एकाध अपवाद को छोड़कर ये समस्त विज्ञापन उसी प्रकार जाति आधारित होते हैं जिस प्रकार भारत में होते हैं. यह देखना आश्चर्यजनक है कि ब्रिटेन, अमेरिका आदि खुले समाजों में रहते हुए भी तथाकथित सवर्ण हिंदू जातीय संकीर्णता में क्यों बंधे रहते हैं. नए देश और समाज में वहां की व्यवस्था और कानून के अनुसार ही चला जाता है. विदेशों में रहने वाले भारतीय (तथाकथित सवर्ण हिंदू) उन देशों के कानूनों का तो पालन करते हैं,  उनके रहन-सहन, खान-पान, भाषा और पहनावे को भी सहज अपना लेते हैं. किंतु अपने धर्म और संस्कृति को जीवित रखते हैं, या कहिए अपने धर्म और संस्कृति को नहीं छोड़ते हैं. हिंदू समाज के लिए वर्ण-जाति-व्यवस्था उनके धर्म का आधार है. यज्ञोपवीत आदि संस्कारों के द्वारा बाल्यावस्था से ही व्यक्ति को श्रेष्ठता और हीनता का पाठ सिखाया जाता है. जातिगत भेदभाव के विषाणु यहीं से उसके मानस को विषाक्त बनाना शुरू कर देते हैं. वर्ण-जाति व्यवस्था यदि समानता की शत्रु और मनुष्यता के लिए विष है तो हिंदू धर्म विष उत्पादन का कारखाना और सवर्ण हिंदू समाज विष का रक्षक, प्रचारक और विक्रेता है. सवर्ण हिंदू जहां भी जाता है अपने साथ वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद के विषाणु अपने साथ लेकर जाता है तथा वहां के समाज को भी जाति के इस जहर से विषाक्त बनाता है. जाति हिंदू धर्म की विशेषता है और सवर्ण हिंदुओं ने कसम खायी हुई है कि कहीं भी रहेंगे अपनी विशेषता को नहीं छोड़ेंगे. वर्ण-जाति व्यवस्था के रूप में हिंदू धर्म का पढाया हुए असमानता के पाठ का प्रभाव ही है कि तथाकथित सवर्ण हिंदू या तो किसी की अधीनता में रहेगा या किसी को अपने  अधीन बनाकर रखेगा. वह समानता और सदभाव के साथ मिल-जुलकर नहीं सकता. यह उसकी नैतिकता, सैद्धांतिकी या आचार संहिता में ही नहीं है.

भारत देश और समाज का कितना अहित शताब्दियों से वर्ण-जाति व्यवस्था ने किया है, यह एक इतिहास है. ब्रिटेन का समाज और राजनेता इससे अनभिज्ञ नहीं होंगे. ब्रिटिश सरकार को सशक्त कानून बनाकर जातिगत भेदभाव को यहीं पर रोकना चाहिए, यही ब्रिटिश और विश्व मानव समाज के हित में है. अन्यथा ब्रिटिश समाज का ताना बाना भी जातिगत भेदभाव से अप्रभावित नहीं रहेगा. जाति का जहर जितना फैलता जाएगा समाज और राजनीति यह सबको प्रभावित करेगा और इससे ब्रिटेन भारत की तरह देश और समाज दोनों ही रूप में विभाजित और कमजोर ही बनेगा सशक्त नहीं.

लेखक जाने-माने साहित्यकार और स्तंभकार हैं.

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