अलविदा रमणिका गुप्ता: आपने सार्थक जीवन जीया, समाज को बहुत कुछ दिया

जानी मानी कवि, कथाकार एवं चिंतक तथा पत्रकार रमणिका गुप्ता का जन्म 22, अप्रैल 1930 को पटियाला रियासत के सुनाम गांव में हुआ. उन्हें बचपन से ही स्वतंत्राता आंदोलन के प्रति भारी लगाव था. वे बचपन से ही मुखर और दबंग थी और शोषण का खुलकर विरोध करती थीं. वे पटियाला के संभ्रात बेदी कुल में पैदा हुई. उनके पिता स्वर्गीय डाक्टर लेफ्टीनेन्ट कर्नल प्यारेलाल बेदी थे. रमणिका गुप्ता की शिक्षा विक्टोरिया कॉलेज पटियाला में आई.ए. तक हुई. जब वे आई.ए. में पढ़ती थीं तो विक्टोरिया कॉलेज फॉर वूमेन, पटियाला में आई.एन.ए. (सुभाष चन्द्र बोस की फौज) के समर्थन में उन्होंने अपने कॉलेज में हड़ताल कराने का प्रयास भी किया था. इस पर कॉलेज में उनकी केनिंग भी की गई थी. रमणिका जी अरूणा आसफअली और गांधी की अनन्य भक्त रहीं. रमणिका जी साहित्य, कविता, अभिनय, नृत्य के साथ-साथ खेल-कूद में भी शिरकत करती थीं. वे कॉलेज की चैम्पियन, नेटबॉल की कैप्टन होने के साथ-साथ वाद-विवाद में भी बहुत हिस्सा लेती थीं.

इस कम उम्र में भी उन्होंने 1946-47 में देश के बंटवारे के क्रम में जो भूमिका अपनाई वह व्यवस्था के प्रतिरोध की थी. उन्होंने 14 साल की उम्र में ही खादी पहननी शुरू कर दी थी. उन्होंने दंगों का विरोध किया और जिन मुसलमान लड़कियों को दंगाई जबरदस्ती उठा कर ले गए थे उनके संबंध में सार्वजनिक तौर पर तत्कालीन मुख्यमंत्रा गुरुमुख सिंह मुसाफिर और डॉ. सुशीला नैयार के समक्ष महारानी पटियाला की उपस्थिति में कहा कि रियासत के अफसरों के घरों में वे लड़कियां हैं. इसका परिणाम यह हुआ कि उनको पटियाला रियासत के बाहर अम्बाला शहर में मामा के यहां भेज दिया गया. विशेष रूप से उल्लेखनीय यह है कि उन्होंने बेदी कुल की होने के बावजूद वेद प्रकाश गुप्ता, जो अंबाला में उनके मामा की मातहती में सहायक नियोजन पदाधिकारी थे, से 1948 में अन्तर्जातीय प्रेम-विवाह सिविल-मैरिज विधि से किया.

उनके मात-पिता और संबंधियों ने इसका कड़ा विरोध किया लेकिन उन्होंने वही किया जो उन्हें उचित लगा. शादी के बाद भी उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और बी.ए., एम.ए. तथा बी.एड. की परीक्षाएं पास की.

उनका जीवन, संघर्ष का वृत्तांत है और उनका लेखन उस वृत्तांत का प्रतिबिंब. अपना जीवन समाज सेवा में न्योछावर कर चुकीं रमणिका गुप्ता की एक संघर्षशील छवि है. जहां वे सामाजिक परिवर्तन, बराबरी और भाईचारे के अपने सपने को साकार करने में कार्यरत थीं, वहीं वे दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों, मजदूरों, किसानों और खेतिहर मज़दूरों के अधिकार के लिए निरंतर तत्पर रहती थीं. धार्मिक, जातीय व रूढ़ियों को दूर करने हेतु वे दृढ़ संकल्प थीं. वे सांप्रदायिक सद्भाव की मुहिम एक अभियान के रूप में चलाती रही थीं. उन्होंने चीन-भारत युद्ध के समय नागपुर जा कर सिविल डिफेन्स का प्रशिक्षण भी लिया. धनबाद में वृहद कवि सम्मेलन का आयोजन टैबेल्यू, कविता-पाठ और नृत्य के शो पेश करके देश के रक्षा-कोष हेतु हजारों रुपए का कोष संग्रह करवाया. खतरा उठा कर भी हर प्रकार के अन्याय का विरोध करना उनकी आदत थी. वे कम्यूनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी में सक्रिय थीं और इस पार्टी की ओर से कोयला खानों की मजदूर यूनियन की अध्यक्ष व सी.आई.टू. झारखण्ड की उपाध्यक्ष थीं. वे सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक के साथ-साथ राजनीतिक-आर्थिक दायरों में एक साथ और समान तत्परता से सक्रिय थीं.

झारखंड के कोयलांचल में उनका पर्दापण 1960 में हुआ जब उनके पति वेदप्रकाश गुप्ता सहायक लेबर कमिश्नर के रूप में धनबाद आए. उनके साथ रमणिका गुप्ता भी आईं जो तब तक बी.एड़ तथा हिंदी में एम.ए. कर चुकी थीं. वे दो लड़कियों और एक लड़के की मां भी बन चुकी थीं. दरअसल धनबाद में ही उन्होंने सक्रिय रूप से राजनीति में प्रवेश किया और एक नेतृत्वकारी भूमिका अदा की. पहले वे संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में रहीं और उस पार्टी द्वारा संचालित अभियानों और आंदोलनों के नेतृत्व किया.

1965 में उनके पति वेदप्रकाश गुप्ता का तबादला कानपुर हुआ तो उन्हें धनबाद छोड़कर पति एवं बाल-बच्चों के साथ जाना ठीक नहीं लगा. वस्तुतः वे वहीं अपना कार्यक्षेत्रा बना चुकी थीं. धनबाद में वे समाज-सेवा से भी जुड़ीं तथा बच्चों की बालवाड़ी और महिलाओं का प्रशिक्षण केन्द्र खोला, जिसमें वे महिलाओं को काम भी दिलाती थीं ताकि वे कुछ आर्थिक उर्पाजन भी कर सकें. उन्होंने सोशल वैलफेयर बोर्ड के तहत 5 गांवों में सेंटर भी खोलें.

उनके द्वारा संपादित एवं प्रकाशित पत्रिका ‘युद्धरत आम आदमी’ उनके जीने के सृजन और लिखने के सृजन के बीच सेतु की तरह है. यह पत्रिका अपने नाम से ही आम आदमी की युद्धरत स्थिति उजागर करती है. उनके साहित्य में उनके जीवन की ललक है. उन दिनों उनकी कविताµ‘रंग-बिरंगी तोड़ चूड़ियां हाथों में तलवार गहूंगी मैं भी तुम्हारे संग चलूंगी मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी’ बहुत लोकप्रिय हुई थी.

1967 में बिहार में पड़े अकाल के दिनों में वे सक्रिय रहीं और कई गांवों में लंगर चलाए.

1967 में रमणिका जी कच्छ आंदोलन में गईं. जार्ज फर्नाडीज के साथ दो बार गिरफ्तार हुईं. आंदोलन में उन्हें इतनी मार लगी थी कि वे बेहोश हो गईं.

1968 में वे संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर मांडू क्षेत्रा से चुनाव लड़ीं जो एक उपचुनाव था. ये सीट राजा कामख्या नारायण ने खाली की थी. चुनाव के दरम्यान ही उन्होंने गोमिया में पानी की लड़ाई लड़ी. मांडू क्षेत्रा पानी की कमी वाला क्षेत्रा रहा है. उस समय मांडू क्षेत्रा में गोमिया, माण्डू एवं चुरचू प्रखंड थे. चुरचू का थोड़ा भाग छोड़कर बाकी सब खनन् क्षेत्रा था. वे केवल 700 वोटों से चुनाव हारीं जबकि उस सीट पर कांग्रेस के मंत्रियों तक की जमानत जब्त हो जाया करती थी. उन्होंने जनता से जो वायदा किया था, उन्होंने उसे निभाया और मांडू में ही रह गईं. टाटा की वेस्ट बोकारो कोलयरी में लड़ कर मजदूरों के बच्चों के लिए हाई स्कूल का भवन बनवाया और स्कूल चलवाया. पानी देने एवं छोटानागपुर के आदिवासियों के जंगल के अधिकारों, जल-जंगल-जमीन और लाठा-छावन और जलावन की जबरदस्त लड़ाई भी सन् 1969 में ही उन्होंने छेड़ी और सफल हुईं.

मांडू क्षेत्रा के पहला चापाकल बंजी गांव में टाटा ने लगवाया जो अब भी इस आंदोलन का गवाह है. पानी के आंदोलन के चलते जनता उन्हें ‘पानी की रानी’ कहने लगी. लाठा, छावन, जलावन के लिए ‘कूप’ की और जल-जंगल-जमीन के अधिकार तथा डिमॉर्केशन में जोती गई जमीन रैयत को वापिस दिलाने की लड़ाई में वे पुराने हजारीबाग जिले के आदिवासियों को जेल भरो अभियान में साथ लाने में सफल हुईं. आठ हजार एकड़ जमीन के करीब मुक्त कराई गई. जंगल के सिपाहियों द्वारा महिलाओं पर किए जा रहे जुल्म के खिलाफ, उन्होंने ‘घूस नहीं अब घूसा देंगे’ का आंदोलन वहां की आदिवासी जनता को साथ लेकर चलाया. पतरातू स्वांग और खुदगड्डा में पानी का आंदोलन भी चलाया. कोलमाइंस में ‘कोयला श्रमिक संगठन’ के नाम से यूनियन बनाई. राजा और टाटा की खदानों में यूनियन बनाकर माफिया और ठेकेदारों के विरुद्ध ऐतिहासिक संघर्ष भी किया और कई बार शारीरिक तौर पर प्रताड़ित भी हुईं. उन दिनों एन.सी.डी.सी. की सरकारी कोयला खदानों में झाडू लगाने वाले स्वीपर भी राजस्थान से लाए जाते थे. इसके विरोध में स्वांग और कथारा कोलयरी में 1969 में ही उन्होंने स्थानीय लोगों के रोजगार की लड़ाई शुरू की जिसमें भारी संख्या में लोग जेल गए.

यूनियन के माध्यम से उन्होंने ठेकेदारी प्रथा के खिलाफ राजाराम गढ़ की केदला-झारखंड की खदानों में भीषण संघर्ष छेड़ा और ठेकेदारों, लठैतों, माफिया का सामना कर, मजदूरों के अधिकार दिलाए. लोकसभा की याचिका-समिति के सामने भी उन्होंने याचिका दायर की.

हमारा काम क्या है, लिख कर दो/ हमारा नाम क्या है लिखकर दो/ वेतन क्या है लिखकर दो/ हम कौन हैं लिखकर दो – के नारे मजदूरों को दिए जो पूरे कोयला क्षेत्रा में गूंज उठे. इन मांगों को लेकर उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा. रैलीगढ़ा और कुजु क्षेत्रा की खदानों में खदानों के मालिकों और ठेकेदारों के खिलाफ आंदोलन छेड़ा तो ठेकेदारों, पहलवानों ने इन पर जानलेवा हमला किया, जिसमें इनका बायां हाथ और कालरबोन टूट गई. लाठियों के इक्कीस घाव शरीर पर लगे तथा भाला से आंख का ऊपरी हिस्सा कट गया. इन पर कई बार जानलेवा हमले हुए और एक लम्बा संघर्ष छिड़ गया. इन्होंने सदैव किसान व मजदूरों को मिलाकर लड़ाईयां लड़ीं. हड़ताल के दौरान मजदूर आठ आना चौका पर मिट्टी काटते रहे. वे चूहे की बिलों से धान चुनकर लाते और वही उबाल कर खाते रहे पर हारे नहीं, झुके नहीं. केदला माइंस के राष्ट्रीयकरण के लिए उन्होंने वृहद संघर्ष छेड़ा. केदला माइंस में लगभग सवा साल तक हड़ताल चली और तब जाकर कहीं खदानें सरकारी हुईं.

कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण के बाद वे अपील कमेटी की मैम्बर बनीं और हजारों लोगों को नौकरी दिलाई, जिसमें महिलाएं भी थीं. पर महिलाओं की नौकरी में काफी दिक्कत हुई. अधिकांश स्त्रा-कामगारों की छंटनी कर दी गई. वे 1972-73 एवं 1974-79 तक में कांग्रेस की तरफ से बिहार विधान परिषद की सदस्य (एम.एल.सी.), कांग्रेस पार्टी की हजारीबाग जिला की अध्यक्ष, बी.पी.सी.सी तथा ए.आई.सी.सी. की सदस्य भी रहीं. 1977 में स्थानीय लोगों को कांग्रेस का टिकट न दिए जाने के विरोध में उन्होंने हजारीबाग जिला की कांग्रेस का अध्यक्ष पद एवं ए.आई.सी.सी. की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया और लोकदल के टिकट पर 1979 में एम.एल.ए. चुनी गईं. उनके भीतर पूर्ण परिवर्तन की छटपटाहट ने अंततः उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवाद) के संगठन में पहुंचा दिया.

उन्होंने विस्थापितों के सवाल पर 1980 के अगस्त में आंदोलन छेड़ा और 2000 लोगों को लेकर जेल गईं, जिसमें भारी संख्या में महिलाएं भी गिरफ्तार हुईं. सब लोग दो माह जेल में रहे. बिहार सरकार के साथ समझौता होने के कारण उन्हें और उनके सभी साथियों पर केस समाप्त कर उन्हें छोड़ दिया गया. विस्थापितों को 3 एकड़ पर नौकरी की बजाय चूल्हा परती एक नौकरी अथवा जमीन के बदले जमीन, पुनर्वास एवं विस्थापित महिलाओं को भी मुआवजा एवं नौकरी में हिस्से की तथा खदानों के 10 किलोमीटर के क्षेत्रा के भीतर (कोल माइंस के ईदगिर्द) सामुदायिक विकास एवं कल्याण योजना बनाने की मांग भी रखी गई.

विस्थापितों को आंदोलन के साथ-साथ उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में तीन अलग-अलग मुकदमे भी दायर किए जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने रोजगार व पुनर्वास की योजना बनाने के लिए कोल इंडिया को आदेश दिया और पुनर्वासµयोजना लागू होने तक सुप्रीम कोर्ट ने कोल इंडिया को काम पर रोक के स्थगना-आदेश भी दिए.

रमणिका जी द्वारा किसानों के साथ मिलकर एक और रिट-पैटीशन दायर की गई. ये सभी केस 1981 से 1997 तक सुप्रीम कोर्ट में चले. इन 16 वर्षों के दौरान श्रीमती गुप्ता ने किसानों और मजदूरों के आंदोलनों के बल पर सरकार को कई सुधार करने के लिए मजबूर किया. सर सिफ्टन द्वारा 1908 में किए गए सर्वे के अनुसार टांड जमीन की मुआवजा दर मात्रा रु. 2/- प्रति एकड थी. इनके आंदोलन की वजह से यह दर 30 हजार रुपए कहीं-कहीं इसके भी अधिक राशि तक प्रति एकड तक पहुंच गई. देरी करने के एवज में सूद की राशि भी अलग से दी जाने लगी.

गांव वालों को रोजगार न देकर स्वैच्छिक अवकाश के नाम पर मजदूरों के बदले, खासकर औरतों के बदले उनके द्वारा किसी व्यक्ति को भी नौकरी देने के प्रवाधान को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और इस योजना को रद्द करवाया. हालांकि कोलइण्डिया ने बाद में बीमारी के नाम पर 9.4.3 के तहत स्वैच्छिक अवकाश की नीति चालू रखी और छटनी जारी रही, पर इस स्थानादेश के कारण तत्काल स्त्रा, आदिवासी व दलित मजश्दूरों की नौकरियां काफी हद तक बच गईं.

इन्होंने विस्थापित खेतिहर, भूमिहीन एवं हाशिए वाले किसानों के लिए कोड़कर राईट की लड़ाई भी बिहार सरकार से जीती, जिसके चलते गैरमजुरआ जमीनों पर भी किसानों को कोलइंडिया में नौकरी मिली. जहां-जहां उन्होंने संघर्ष किए वहां-वहां गांव उजड़ने से बच गए. सुप्रीम कोर्ट ने विस्थापित स्त्रा को भी नौकरी देने का आदेश दिया.

1985 में सिंगरौली क्षेत्रा में मजदूरों और किसानों के आंदोलन के सिलसिले में उन्हें लगभग एक साल तक भूमिगत भी रहना पड़ा,फलतः वे हृदय रोग की शिकार हो गईं.

इन्होंने चतरा में दलित स्त्रियों के डोले पहली रात बाबू साहबों के घर जाने की प्रथा के खिलाफ भी आवाजश् उठाई. 1975 में जंगलों में उगे महुए गाछों को पहलवानों के कब्जे से मुक्त करवाकर ग्रामीणों के महुआ चुनने के अधिकार को लागू करवाया.

उन्होंने 1975 में अर्न्तराष्ट्रीय महिला सम्मेलन बर्लिन में और आई.सी.एफ.टी.यू. मैक्सिको की अन्तर्राष्ट्रीय कांफ्रेंस में मजदूरों की ओर से प्रतिनिधित्व किया. 1984 में रूस में पीस मिशन के डेलिगेशन का नेतृत्व किया. 1987 में यूगेस्लावाकिया तथा नार्वे और 1993 में फिलीपींस, तथा 1994 में क्यूबा में उन्होंने सी.आई.टी.यू. की ओर से भारतीय मजदूरों का प्रतिनिधित्व किया. 2000 में द्वितीय विश्व दलित सम्मेलन में भाग लिया.

उम्र के प्रभाव को अस्वीकार करते हुए वे अभी भी ओजस्विता के साथ विषमता के विरुद्ध सख्त प्रहार करती थीं. उन्हें धर्म, जाति यहां तक कि लिंग के प्रभाव से मुक्त माना जा सकता है. वे भविष्य की स्त्रा मालूम पड़ती हैं; वह स्त्रा जिसकी उपलब्धि हेतु वर्तमान स्त्रा समुदाय संघर्षरत है. रमणिका गुप्ता अपने लेखन में ‘बहु जुठाई’ जैसी सड़ी गली रस्म, आदिवासी दलितों के प्रति सवर्णों का भेदमूलक जातिपरक व्यवहार तथा शोषण और स्त्रियों के यौन शोषण के विरुद्ध संघर्ष को उकेरा है. हेंदेगढ़ा में कुर्मियों की पंचायत प्रेम करने वाले दलित लड़के को मार देती है और उसकी प्रेमिका को लुकाठी से दाग देती है तो रमणिका गुप्ता के शब्द उनकी कविताओं और कहानियों चीख उठते हैं. इसी तरह जब वे मजदूरों की समस्याओं को लेकर प्रबन्धन को चुनौती देती थीं. तो उनके लेखन में उनके अनुभव कई विधाओं में मुखरित हो जाते थे और इन तबकों को अपनी बुलन्द आवाज में वे आह्वान कर प्रेरित करती थीं.

साभार- लोकवाणी

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