भाजपा के दलित प्रेम की कसौटी पर यूपी विधान सभा चुनाव

ये बात सही है कि भारत में दलित चेतना का संचार देश के दक्षिण-पश्चिमी तट से शुरू हुआ. पर आज देश में बहुजन आन्दोलन या दलित अस्मिता की बात होती है तो लखनऊ के अंबेडकर पार्क और नोएडा के दलित चेतना केंद्र के बिना पूरी नहीं हो पाती है. कभी अवध या संयुक्त प्रान्त के नाम से जाना जाने वाला उत्तर प्रदेश कई विशेषताओं के कारण भारतीय सियासत में अपना एक अलग स्थान रखता है. इसकी पुष्टि 2014 के लोकसभा चुनाव में बनारस संसदीय क्षेत्र के राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय सियासत की चर्चा के केंद्र बिंदु में आने से हो जाती है. समकालीन राजनीति में भारत के सबसे ज्यादा आबादी और सबसे ज्यादा संसदीय क्षेत्र वाला राज्य होने के कारण देश की सक्रिय राष्ट्रीय पार्टियों एवं प्रादेशिक पार्टियों के आँखों का तारा बना हुआ है. क्योंकि राजनीतिज्ञों, बुद्धिजियों, और पत्रकारों द्वारा ऐसा माना जाता है कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है. इस लिहाज से उत्तर प्रदेश का 2017 का विधान सभा चुनाव अति महत्वपूर्ण है. चूँकि प्रदेश में दलित आबादी 22 से 25 फीसदी है. इसलिए कोई भी राजनैतिक दल इस तबके से मुँह नहीं मोड़ सकता है. सूबे में कई बार सत्ता सोपान का सुख भोग चुकी “बसपा” के रूप में दलितों की अपनी एक स्थापित पार्टी है. इस पार्टी के नेतृत्व (बहन जी) ने दलितों को अपनी एक अलग पहचान और मान सम्मान की जिन्दगी दिलायी है. अतीत के अनुभव हमें यहीं बताते हैं कि सूबे के दलित बहन जी के लगभग अटूट और खामोश सेनानी हैं.

लेकिन ये बात 2014 के आम चुनाव के सन्दर्भ में उपयुक्त नहीं बैठती है. कांग्रेस विरोधी हवा और मोदीजी के जुमलों के साथ समाज के सारे तबकों का सहयोग भाजपा की भारी बहुमत का कारण रहा. उत्त्तर प्रदेश के सन्दर्भ में मोदी के पिछड़ा होने का और चाय बेचने वाला जुमला सिर चढ़ कर बोला. परिणाम स्वरुप बड़ी संख्या में पिछड़े एवं दलित समुदाय के लोगों ने खुल कर भाजपा को वोट दिया. सत्ता में आने के बाद ही भाजपा ने इस जनाधार को एक स्थायी सम्पति के रूप में संजोने की शुरुआत कर दी. इस मुहीम में आरएसएस द्वारा दलितों को अपने संगठन में शामिल करने का प्रयास तेज हो गया. परिणाम स्वरुप सरसंघचालक अनुसूचित जातियों के आरक्षण का समर्थन करने लगे, सार्वजनिक मंचो से बाबा साहब को अपना आदर्श बताने लगे, संघ के कार्यालय में महात्मा फूले, सावित्री बाई फूले और बाबा साहब की तस्वीर दिखने लगी. पांचजन्य में बाबा साहब के विचारों को जगह मिली. इससे भी आगे बढ़कर संघीय सरकार द्वारा दलितों की उद्यमशीलता  बढ़ाने हेतु “स्टैंड अप इंडिया” जैसी योजना की शुरुआत की गयी. राजनीति और खासकर इस लोकतान्त्रिक राजनीति में सबको संतुष्ट रख पाना असंभव है. पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों की जरूरतें बदल जाती हैं. दलित समाज की शिक्षित युवा पीढ़ी को अपनी जरूरतों के अनुसार सोशल मीडिया के प्रभाव में आकर दुसरे दलों की तरफ झुकने की ज्यादा सम्भावना थी. बहन जी के सामने भी ये चुनौती थी.

2014 के लोक सभा चुनाव में ऐसा ही हुआ. जिसके फलस्वरूप बहुत बड़ी संख्या में दलित समुदाय की युवा पीढ़ी ने भाजपा को वोट दिया. लेकिन मद्रास आईआईटी की घटना, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की आत्म-हत्या, हरियाणा में दलितों के साथ अत्याचार पर राज्य सरकार की खामोशी ने आरएसएस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया. खासकर रोहित वेमुला के मामले में भाजपा नेताओं कि संलिप्तता और इस मामले को जैसे-तैसे निपटाने की कोशिश से सरकार की मुश्किलें और ही बढ़ गयी. वेमुला एक दलित शोधार्थी था और जैसे ही उसकी स्कालरशिप बंद हुई उसे अपना जीवन जीना भी मुश्किल हो गया. फिर मजबूर होकर उसे ख़ुदकुशी करनी पड़ी. बाकी की कोर-कसर लखनऊ के बीबीएयू (बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर) केंद्रीय विश्वविद्यालय में माननीय प्रधानमंत्री जी द्वारा दी गयी असंवेदनशील भाषण ने पूरा कर दिया. इन सारी घटनाओं ने सन्देश दिया कि सरकार की कथनी और करनी में अंतर है. इससे भाजपा के सुशासन की पोल तो खुल ही गयी साथ मीडिया के द्वारा मानव संसाधन मंत्री सहित और भाजपा के अन्य नेताओं का नाम इस मामले में आया. जो जनता में सरकार के दलित विरोधी होने का सन्देश दिया. ईटी मगज़ीन और बिग डेटा फर्म मैविनमैगनेट की ऑनलाइन सर्वे से इस बात पुष्टि हो जाती है क्योंकि मोदी सरकार के दो साल के कार्य-काल में दलितों में आठ फीसदी नकारात्मक भावना पैदा हुई है. इसका असर प्रदेश के पंचायत चुनाव में भी दिखा और परिणाम स्वरूप लोक सभा में प्रचंड बहुमत पाने वाली भाजपा पहले पायदान से सीधे तीसरे पायदान आ गयी. यहीं नकारात्मक भावना, आगामी चुनाव में दलितों को दुसरे रास्तों की तलाश के लिए विवस करेगी.

अभी हाल में बाबा साहब की 125 वी वर्षगांठ मनाई गयी और केद्र सरकार ने कई योजनाओं की शुरुआत करके अपनी दलित प्रेम की आस्था को दर्शाने की कोशिश की. एक जन सभा में अमित शाह जी तो यहाँ तक कह गये कि “सिर्फ नरेन्द्र मोदी सरकार में ही बाबा साहब के द्वारा बनाये गये संविधान और सबके विकास पर अमल हो रहा है.” ऐसा कह कर उन्होंने दलितों को गुमराह करने की कोशिश की. क्योंकि 26 जनवरी 2015 की परेड में जब बराक ओबामा मुख्य-अतिथि के रूप में भारत आये थे तो संविधान की प्रस्तावना से धर्म-निरपेक्ष (सेकुलरिज्म) शब्द ही गायब था. जबकि “धर्म-निरपेक्षता” देश के संविधान की मूल भावना में है. इसका खंडन भी भाजपा के आला नेताओं ने गलत तरीके से किया. फिर धर्म-निरपेक्षता की तरह “लोकतंत्र” भी संविधान की मूल भावना में है. बिना कोई शर्त और जाति-धर्म, जन्म के स्थान, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव किये बिना सबको व्यस्क मताधिकार का अधिकार देने वाले विलक्षण संविधान के साथ कैसे छेड़-छाड़ हुआ. अभी हाल में राजस्थान और हरियाणा के पंचायत चुनाव में क्या हुआ और क्यों हुआ? पंचायत में चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों के लिए एक निश्चित शैक्षणिक योग्यता का निर्धारण करके इन राज्यों की राज्य सरकारें किसके विकास को प्रभावित करने का काम की हैं? और किसकों इस लोकतंत्र का हिस्सा बनने से रोकी हैं? इन राज्यों के नए कानून के कारण ढेर सारे दलित लोकतंत्र का हिस्सा बनने से वंचित हो गये.

2012 की जातिगत जनगणना साफ साफ बयां करती है कि सवर्णों की तुलना में दलितों और पिछड़ों का शैक्षणिक स्तर नीचे है. इस प्रकार नये कानून के तहत चुनाव करा कर हरियाणा और राजस्थान की सरकारें दलितों को लोकतंत्र का हिस्सा बनने से रोकी हैं और संविधान की मूलभावना से छेड़-छाड़ भी की हैं. फिर गुजरात के पंचायत चुनाव की कहानी लोकतंत्र का सरेआम क़त्ल करती हुई नजर आयी क्योंकि यहाँ तो विशेष अनुदान पाने हेतु “समरस” पंचायतों के गठन की बात हुई. ताकि सरपंचों की नियुक्ति बिना चुनाव हो संपन्न हो जाए. ऐसा करके गुजरात सरकार क्या करना चाहती थी? 21 वीं सदी में जहाँ समावेशी विकास की बात हो रही है. वहां दलितों को लोकतंत्र से दूर करके भाजपा की सरकारें क्या हाशिल करना चाहती थीं? इससे साफ जाहिर होता है कि देश के लिखित संविधान से दूर-दूर तक भाजपा का कोई वास्ता नहीं है. भाजपा “मनुस्मृति” के सहारे ही देश को चलाना चाहती है. उत्तर प्रदेश के दौरे में अमित शाह का दलित कार्यकर्ता के घर भोजन करना यहीं दिखाता है कि प्रदेश की 22 से 25 फीसदी दलित आबादी विधान सभा चुनाव में सिरकत करने वाली सभी पार्टियों के लिए महत्वपूर्ण है. यहीं भाजपा के भी आम्बेडकर, संविधान, और दलित प्रेम का राज है.

हाल ही, गुजरात में अपने आप को गौरक्षक कहने वाले शिव सेना के कार्यकर्ताओं द्वारा दलितों को पीटने की खबर लोगों तक आयी. घटना स्थल पर पहुँचने वाली गुजरात पुलिस गौरक्षकों को गिरफ्तार करने के बजाय दलितों को ही पशु अत्याचार विरोधी कानून के तहत मुक़दमा कायम किया. दलितों को पुलिस थाने पहुँचाने की जिम्मेदारी गौरक्षकों को सौप दी. बाद में पता चला कि गौरक्षक तीन घंटे तक गाड़ी में घुमा-घुमा कर दलितों को पीटते रहे. इससे गौरक्षकों और पुलिस-प्रशासन की सांठ-गांठ की खबर की पुष्टि हो जाती है. जिसके खिलाफ गुजरात के भिन्न-भिन्न जगहों पर दलित समुदाय के लोग अपने अन्तराष्ट्रीय मानवाधिकार, संवैधानिक मौलिक अधिकार और मान-सम्मान की लड़ाई के लिए सडकों पर उतरे. ये वही गुजरात है जिसके विकास के प्रारूप को राष्ट्रीय पटल पर रख भाजपा 2014 में प्रचंड बहुमत पाई थी. जो इस घटना के बाद पुरे भारत के लिए महज एक ढकोसला साबित हुआ. जिसके बाद उत्तर प्रदेश में दलित मजबूती के साथ बहन जी के साथ खड़े हुए. हरियाणा में एक ही परिवार की लड़कियों के साथ तीसरी बार बलात्कार की घटना ने इस मजबूती को बल देने का काम किया. बाकी की कोर-कसर भाजपा के पूर्व-प्रदेश उपाध्यक्ष दया शंकर सिंह उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव का मोहन भागवत बनकर पूरा कर दिये हैं. अब स्थिति को संभलते-संभलते गंगा-यमुना में बहुत सारा पानी बह जायेगा. फिर भाजपा के पास पछताने के अलावा कुछ नहीं होगा. आने वाले पांच साल तक भाजपा के लोग इस बात को लेकर माथा-पची करते रहेंगे कि काश! दया शंकर सिंह ये बयान नहीं दिये होते. बलिया की ऐतिहासिक धरती से क्रांतिकारी पैगाम देने के चक्कर में भूल से ही सही दया शंकर सिंह अपनी सामंती सोच को सुस्पष्ट कर दिये हैं. इस घटना ने उनके सामंती सोच को तो प्रकट किया ही है साथ ही बलिया के बारे में कुछ गलत संदेश भी लोगों के बीच दिया है. इस बात की चर्चा बहुजन आन्दोलन से जुड़े कई लोगों ने की. लेकिन लोगों को ध्यान देना चाहिए दया शंकर सिंह बलिया नहीं हैं, और बलिया दया शंकर सिंह नहीं है. किसी एक घटना से किसी जगह और समुदाय को आंकना ठीक नहीं है. इसमें कोई दो राय नहीं स्वामी प्रसाद मौर्या और आर के चौधरी के पार्टी छोड़ने के बाद बसपा बेक-फूट पर थी. पर दया शंकर सिंह बसपा को एक नई वायु प्रदान कर दिये हैं.

इस घटना के बाद प्रदेश भर में बसपा कार्यकर्ताओं की प्रतिक्रिया से स्थिति साफ़ हो गयी कि सूबे का दलित समाज अत्यंत मजबूती के साथ अपनी नेत्री के साथ खड़ा है. भाजपा केपी मौर्या और अनुप्रिया पटेल जैसे पिछड़े वर्ग के नेताओं को सक्रिय करके मतदाताओं को जातिगत आधार पर मोड़ने शुरुआत की थी. लेकिन दयाशंकर सिंह के बयान के बाद भाजपा की जो चहु ओर आलोचना हुई. इससे साफ़ जाहिर होता है इस बयान से पिछड़े वर्ग के मतदाताओं में भी नाराजगी है. राजनैतिक सत्ता ही सामाजिक बदलाव की कुंजी है. बाबा साहब के दर्शन की अच्छी समझ के नाते और कांशीराम जी के निकटवर्ती होने के नाते ये बात बहन जी को बखूबी मालूम है. एक कुशल नेत्री और कुशल प्रशासक होने के नाते वे इस मौके का लाभ उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगी. दिल्ली से लेकर लखनऊ तक बसपा के कार्य-कर्ताओं का अपने नेता के साथ खड़ा होना उसी का नतीजा है. ऐसी स्थिति में दलित मतदाता जितनी मजबूती के साथ अपनी नेत्री के साथ खड़ा रहेगा उतनी ही तीव्र गति से अल्प-संख्यक मतदाताओं का ध्रुवीकरण होगा. क्योंकि अल्प-संख्यक मतदाता उसी पार्टी को वोट देंगे जो भाजपा को सत्ता से दूर रखने में सबसे आगे होगी. दया शंकर सिंह के बयान के बाद बसपा के साथ जूड़ी लोगों की सहानुभूति और उमड़े जन-सैलाब के कारण बसपा की तरफ अल्प-संख्यक मतदाताओं के मुड़ने की संभावना ज्यादा हो गयी है क्योंकि अंक-गणित के इस खेल में बसपा सबसे आगे है. और वैसे तो राजनीति अपनी अनिश्च्तिता व गतिशीलता के लिए जानी जाती है, जिसके व्याकरण और समीकरण के बदलने की संभावना सदैव बनी रहती है. स्वामी प्रसाद मौर्या और आर के चौधरी के पार्टी छोड़ने के कारण बसपा की मुश्किलें थोड़ी बढ़ी थी. लेकिन इस घटना ने पार्टी और बसपा कार्य-कर्ताओं में एक नई जान डालने का काम किया है. जिसके चलते बसपा प्रारंभिक दौर में अपने प्रति-द्वंदियों से आगे नजर आ रही हैं.

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के समाजकार्य विभाग में शोधार्थी हैं.

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