जयंती विशेष : वंचितों के लिए जीवनपर्यंत संघर्ष करते रहे महात्मा फुले

महात्मा जोतिबा फुले ऐसे महान विचारक, समाज सेवी तथा क्रांतिकारी कार्यकर्ता थे जिन्होंने भारतीय सामाजिक संरचना की जड़ता को ध्वस्त करने का काम किया. महिलाओं, दलितों एवं शूद्रों की अपमानजनक जीवन स्थिति में परिवर्तन लाने के लिए वे आजीवन संघर्षरत रहे. सन 1848 में क्रांतिकारी कदम उठाते हुए उन्‍होंने पुणे में अछूतों के लिए पहला स्कूल खोला. यह भारत के ज्ञात इतिहास में अपनी तरह का पहला स्‍कूल था. इसी तरह सन 1857 में उन्होंने लड़कियों के लिए स्‍कूल खोला जो भारत में लड़कियों का पहला स्कूल था. उस स्कूल में पढ़ाने के लिए कोई शिक्षक न मिलने पर जोतिबा फुले की पत्नी सावित्रीबाई फुले आगे आईं. अपने इन क्रांतिकारी कार्यों की वजह से फुले और उनके सहयोगियों को तरह-तरह के कष्ट उठाने पड़े. उन्हें बार-बार घर बदलना पड़ा. फुले की हत्या करने की भी कोशिश की गई; पर वे अपनी राह पर डटे रहे. अपने इसी महान उद्देश्य को संस्थागत रूप देने के लिए जोतिबा फुले ने सन 1873 में महाराष्ट्र में सत्य शोधक समाज नामक संस्था का गठन किया. उनकी एक महत्वपूर्ण स्थापना यह भी थी कि महार, कुनबी, माली आदि शूद्र कही जानेवाली जातियां कभी क्षत्रिय थीं, जो जातिवादी षड्यंत्र का शिकार हो कर दलित कहलाईं.

 जोतिबा ने समाज और जाति के बंटवारे को भी अपने तर्कों से समझने की कोशिश की. अपनी पुस्तक ‘गुलाम गिरी’ की प्रस्तावना में उन्होंने इसका विश्लेषण किया है. उन्होंने लिखा है, ‘सैकड़ों साल से आज तक शूद्रादि-अतिशूद्र (अछूत) समाज; जब से इस देश में ब्राह्मणों की सत्ता कायम हुई तब से लगातार जुल्म और शोषण से शिकार हैं. ये लोग हर तरह की यातनाओं और कठिनाइयों में अपने दिन गुजार रहे हैं. इसलिए इन लोगों को इन बातों की ओर ध्यान देना चाहिए और गंभीरता से सोचना चाहिए. ये लोग अपने आपको ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों की जुल्म-ज्यादतियों से कैसे मुक्त कर सकते हैं. यही आज हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल हैं; यही इस ग्रंथ का उद्देश्य है.’ जोतिबा ने लिखा है, ‘यह कहा जाता है कि इस देश में ब्राह्मण-पुरोहितों की सत्ता कायम हुए लगभग तीन हजार साल से भी ज्यादा समय बीत गया होगा. वे लोग परदेश से यहां आए. उन्होंने इस देश के मूल निवासियों पर बर्बर हमले करके इन लोगों को अपने घर-बार से, जमीन-जायदाद से वंचित करके अपना गुलाम (दास) बना लिया. उन्होंने इनके साथ बड़ी अमानवीयता का रवैया अपनाया था. ब्राह्मणों ने यहां के मूल निवासियों को घर-बार, जमीन-जायदाद से बेदखल कर इन्हें अपना गुलाम बनाया है, इस बात के प्रमाणों को ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने तहस-नहस कर दिया. दफना कर नष्ट कर दिया.’ अंग्रेजी शासन को जोतिबा ने दलित एवं वंचितों के हित के रूप में देखा. उनका मानना था कि इस देश में अंग्रेज सरकार आने की वजह से शूद्रादि-अतिशूद्रों की जिंदगी में एक नई रोशनी आई. उन्होंने कहा कि यह कहने में किसी प्रकार का संकोच नहीं है कि अंग्रेजों के शासनकाल में ही ये लोग ब्राह्मणों की गुलामी से मुक्त हुए.

 जोतिबा फुले का पूरा नाम जोतिराव गोविंदराव फुले था. उनका जन्‍म 11 अप्रैल 1827 को पुणे में महाराष्‍ट्र के माली परिवार में हुआ. जोतिबा के पिता का नाम गोविन्‍द राव तथा माता का नाम विमला बाई था. एक साल की उम्र में ही जोतिबा फुले की माता का देहान्‍त हो गया. पिता गोविन्‍द राव जी ने आगे चल कर सुगणा बाई नामक विधवा जिसे वे अपनी मुंह बोली बहिन मानते थे उन्‍हें बच्‍चों की देख-भाल के लिए रख लिया. जोतिबा को पढ़ने की ललक से पिता ने उन्हें पाठशाला में भेजा था मगर सवर्णों के विरोध ने उन्‍हें स्‍कूल से वापिस बुलाने पर मजबूर कर दिया. अब जोतिबा अपने पिता के साथ माली का कार्य करने लगे. काम के बाद वे आस-पड़ोस के लोगों से देश-दुनिया की बातें करते और किताबें पढ़ते थे. उन्‍होंने मराठी शिक्षा सन् 1831 से 1838 तक प्राप्‍त की. सन् 1840 में तेरह साल की छोटी सी उम्र में ही जोतिबा का विवाह नौ साल की सावित्री बाई (1831-1897) से हुआ. आगे जोतिबा का दाखिला स्‍काटिश मिशन नाम के स्‍कूल (1841-1847) में हुआ, जहां पर उन्‍होंने थामसपेन की किताब ‘राइट्स ऑफ मेन’ एवं ‘दी एज ऑफ रीजन’ पढ़ी, जिसका उन पर काफी असर पड़ा.

 एक बार वह अपने स्‍कूल के एक ब्राह्मण मित्र की शादी में उसके घर गए. वहां उन्‍हें काफी अपमानित होना पड़ा था. इससे उनमें प्रतिरोध का भाव आ गया. बड़े होने पर उन्‍होंने इन रूढ़ियों के प्रतिकार का विचार पक्‍का कर लिया. 1848 में उन्‍होंने अछूतों के‍ लिए पहला स्‍कूल पुणे में खोला. यह भारत के तीन हजार साल के इतिहास में ऐसा पहला स्‍कूल था जो दलितों के लिए था. 1848 में यह स्‍कूल खोल कर महात्‍मा फुले ने उस वक्‍त के समाज के ठकेदारों को नाराज कर दिया था. जोतिबा के पिता गोविन्‍द राव जी भी उस वक्‍त के सामंती समाज के बहुत ही महत्‍वपूर्ण व्‍यक्ति थे. इस कारण उनके पिता पर काफी दबाव पड़ा तो उनके पिता ने उनसे आकर कहा कि या तो स्‍कूल बंद करो या घर छोड़ दो. तब जोतिबा फुलेएवं उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले ने सन् 1849 में घर छोड़ दिया. उस स्‍कूल में एक ब्राह्मण शिक्षक पढ़ाते थे. उनको भी दबाव में अपना घर छोड़ना पड़ा. सामाजिक बहिष्‍कार का जवाब महात्‍मा फुले ने 1851 में दो और स्‍कूल खोलकर दिया. सन् 1855 में उन्होंने पुणे में भारत की प्रथम रात्रि प्रौढ़शाला और 1852 में मराठी पुस्तकों के प्रथम पुस्तकालय की स्थापना की. जोतिबा ने भारत का पहला लड़कियों की शिक्षा के लिए स्कूल खोला. जिसमें पढ़ाने के लिए कोई भी तैयार नहीं हुआ तो उनकी पत्नी सावित्री ने ही स्‍वयं यह जिम्‍मेदारी उठाकर उस लड़कियों के स्‍कूल मे पढ़ाना आरंभ किया. इस तरह सावित्रीबाई फुले घर से बाहर आ पढ़ाने का काम करने वाली पहली शिक्षिका थीं. उन्हें तंग करने के लिए शुरू में उन पर गोबर और पत्थर फेंके जाते थे; पर वे पीछे नहीं हटी. यही वजह है कि बहुजन समाज 5 सितंबर को शिक्षक दिवस का विरोध करता रहा है और रुढ़िवादियों को चुनौती देकर वंचित तबके के लिए पहला स्कूल खोलने वाले जोतिबा फुले और प्रथम महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले के सम्मान में ‘शिक्षक दिवस’ की मांग करता रहा है.

 मुम्‍बई सरकार के अभिलेखों में जोतिबा फुले द्वारा पुणे एवं उसके आस-पास के क्षेत्रों में शुद्र बालक-बालिकाओं के लिए कुल 18 स्‍कूल खोले जाने का उल्‍लेख मिलता है. अपने समाज सुधारों के लिए पुणे महाविद्यालय के प्राचार्य ने अंग्रेज सरकार के निर्देश पर उन्‍हें पुरस्‍कृत किया और वे चर्चा में आए. इससे चिढ़कर सवर्णों ने कुछ अछूतों को ही पैसा देकर उनकी हत्‍या कराने की कोशिश की गई पर वे उनके शिष्‍य बन गए. सितम्बर 1873 में इन्होने महाराष्ट्र में ‘सत्य शोधक समाज’ नामक संस्था का गठन किया और इसी वर्ष उन‍की पुस्‍तक ‘गुलाम गिरी’ का प्रकाशन हुआ. महात्मा फुले एक समता मूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है. पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है. गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया. उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की. जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमद नगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था. इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया. स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे. मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं, लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा. उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया. फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की. प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था.

 जोतिबा ने शराब बंदी के लिए भी काम किया था. वह मानवता के वाहक थे. एक गर्भवती ब्राह्मण विधवा को आत्‍म हत्‍या करने से रोक उन्‍होंने उसके बच्‍चे को गोद ले लिया. जिसका नाम यशवंत रखा गया. अपनी वसीयत जोतिबा ने यशवंत के नाम ही की. सन् 1890 में जोतिबा के दाएं अंगों को लकवा मार गया. तब वे बाएं हाथ से ही सार्वजानिक सत्‍य धर्म नामक किताब लिखने में लग गये. 28 नवम्बर 1980 को उनका महापरिनिर्वाण हो गया.

 डॉ. अम्बेडकर महात्मा फुले के व्यक्तित्व-कृतित्व से अत्यधिक प्रभावित थे. वे महात्मा फुले को अपने सामाजिक आंदोलन की प्ररेणा का स्त्रोत मनाते थे. 28 अक्टूबर 1954 को पुरूदर स्टेडियम, मुम्बई में भाषण देते हुए उन्होंने महात्मा बुद्ध तथा कबीर के बाद महात्मा फुले को अपना तीसरा गुरू माना है. डॉ. अम्बेडकर ने अपने भाषण में कहा, ‘मेरे तीसरे गुरू जोतिबा फुले हैं. केवल उन्होंने ही मानवता का पाठ पढाया. प्रारंभिक राजनीतिक आंदोलन में हमने जोतिबा के पथ का अनुसरण किया, मेरा जीवन उनसे प्रभावित हुआ है.’ डॉ. अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘’शूद्र कौन थे?’’को 10 अक्टूबर 1946 को महात्मा फुले को समर्पित करते हुए लिखा- ‘‘‘जिन्होंने हिन्दु समाज की छोटी जातियों को, उच्च वर्णो के प्रति उनकी गुलामी की भावना के संबंध में जागृत किया और जिन्होंने विदेशी शासन से मुक्ति पाने से भी ज्यादा सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना को महत्व दिया, उस आधुनिक भारत के महान शूद्र महात्मा फुले की स्‍मृति में सादर समर्पित. बहुजन समाज महात्मा जोतिबा फुले को ‘राष्ट्रपिता’ का दर्जा देता है.

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