बाबा साहेब की अंगुली का इशारा संसद की तरफ है

बाबा साहेब ने ”कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के लिये क्या किया’ में कहा है कि सत्ता ही जीवन शक्ति है. अतः उन्हें (दलितों को) शासक जमात बनाना है और सत्ता अपने हाथ में  लेनी है, वरना जो अधिकार मिले हैं, वे कागजी रह जायेंगे. चुनाव जीवन-मृत्यु का प्रश्न है. कांग्रेस दलितों पर होने वाले अन्याय व अत्याचारों को रोक नहीं सकती. आपकी उठी हुई अंगुली निरन्तर यही प्रेरणा देती है कि सत्ता के इस मंदिर (अंगुली का इशारा संसद की ओर है) पर कब्जा करो.

एक सत्ताधारी व्यक्ति दूसरों के लिये बहुत कुछ कर सकता है. सत्ताधारी के पास असीमित अधिकार और देश के खजाने की चाभी होती है जिसे वह खर्च करने को स्वतन्त्र होता है. वह अपने विवेक से धन को जनता की खुशहाली के लिये खर्च कर सकता है, जनता के भले के लिये कानून बना सकता है और प्रशसन के जरिये कानून लागू करवा सकता है क्योंकि लोकतंत्र में सर्वोच्च शक्ति जनप्रतिनिधियों के पास निहित होती है. संविधान प्रदत्त आरक्षण के चलते सभी राजनैतिक पार्टियां अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लोगों को आरक्षित सीटों पर टिकट देने हेतु विवश हैं. ये उम्मीदवार चाहे जाति के वोटों से जीतें चाहे पार्टी के बंधे हुए वोटों से, कार्य पार्टी के तयशुदा एजेंडे के हिसाब से ही करते हैं. फिर जाति अथवा वर्ग मायने नहीं रखता है. ये सम्बन्धित पार्टियों के अपने-अपने वर्ग या जाति में प्रतिनिधि मात्र होते हैं जो कि पार्टी की छवि को अच्छी बनाकर रखते हैं और पार्टी के वोटों को बांध कर रखते हैं. अगर ये अपने हिसाब से जाति की आवश्यकताओं को देखकर, महसूस करके कोई ऐसा कार्य कर बैठते हैं या घोषणा कर देते हैं जो कि पार्टी की गाईड लाईन के विपरीत हो तो इनका पार्टी में रहना मुश्किल हो जाता है, माफी मांगनी पड़ती है, अगली बार टिकट नहीं मिलता है या पार्टी से निकाल दिया जाता है.

अगर दलित समाज के तथाकथित प्रतिनिधि अपने समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर कार्य करते, लोगों के हित के लिये अपना कार्यकाल बिताते, तो क्या आजादी के लगभग 70 साल बाद भी दलितों को आधारभूत सुविधाओं के लिये जूझना पड़ता? दलितों की बस्तियों में आज भी पानी, बिजली, सड़क, नाली, पर्याप्त साफ-सफाई, सामुदायिक भवन, अस्पताल, विद्यालय, डाकघर और इसी प्रकार की अन्य सुविधाओं का नितान्त अभाव देखा जा सकता है. दलितों के रोजगार के पर्याप्त अवसर नहीं है, बेरोजगारी है. ये सब परेशानियां तो उस समय भी थीं जब भारत आजाद हुआ था. तब से आज तक निरन्तर दलितों के प्रतिनिधि भी चुने जा रहे हैं और काम भी कर रहे हैं. फिर यह सब क्यों? इसका कारण वही है जो पूर्व में बता चुके हैं.

दलित समाज का दुर्भाग्य रहा कि बाबा साहेब मात्र 65 साल की उम्र में ही काल के ग्रास बन गये. भारत की स्वाधीनता के बाद उनको दलितों के लिये कार्य करने का मौका ही नहीं मिला. उनके देहावसान के बाद उनकी राजनैतिक पार्टी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इण्डिया के टुकडे-टुकडे हो गये और उनके अनुयायी (न कि उत्तराधिकारी) अलग-अलग पार्टियों में चले गये, सवर्ण लड़कियों से शादियां कर ली, अपने घर-परिवार बसा लिये. जिस कांरवे की शुरुआत बाबा साहेब ने की थी, वह बिखरने लगा. उनके बाद जिन-जिन नेताओं पर दलितों  को भरोसा था और जो दलितो का भला कर भी सकते थे, वे सत्ता पाने के लिये दल-बदलू साबित हुए. फुटबाल की तरह कभी इस पार्टी में तो कभी उस पार्टी में. इनका कोई जमीर, कोई धर्म कोई आत्मविश्वास नहीं रहा. यह आज तक निरन्तर जारी है. जो लोग दलित हितों के पैरोकार बनते थे, दलित विरोधियों को पानी पी-पी कर कोसा करते थे, जब इन्हीं दलित विरोधी पार्टियों की तरफ से इनको लालच दिया गया तो झट इनके साथ हो गये और सब कुछ भूल गए. इसी प्रकार राज्यसभा में जाने वाले विभिन्न पार्टियों की तरफ से दलित समाज के लोग हैं जो इनके रिक्त स्थानों को भरने के अलावा कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नही करते हैं.

बसपा को छोड़कर आज ऐसी कोई राजनैतिक पार्टी नहीं दिखती है जो दलितों के हितों की रक्षा करने वाली हो. सबको वोट लेने और शासन करने की पड़ी है, परन्तु जहां-जहां दलितो के हित मारे जा रहे हैं, वहां सब मौन हैं. एक छोटा सा उदाहरण देता हूं. किसी जमाने में पीएमटी, पीइटी आदि परीक्षाओं में एससी-एसटी के विद्यार्थियों को आधा शुल्क देना पड़ता था. कुछ सालों से बराबर ही देना पड़ रहा है, जबकि दलितों के एमपी, एमएलए, मंत्री-सब चुने जाते हैं. दरअसल इन नेताओं का रोल कठपुतली से अधिक कुछ नहीं होता है. ये दलितों के हित सम्बन्धी मामलों में हाईकमान के निर्देशों का इंतजार करते हैं और तदानुसार कार्य करते हैं.

हाल ही में दलित समाज के कुछ लोग सत्ताधारी पार्टी की ओर से राज्यसभा में सांसद चुने गये हैं. मेरा उनसे सीधा सवाल है-क्या आप इस पार्टी में रहते हुए उन सिद्धान्तों की रक्षा कर पायेंगे जो जीवन भर आदर्शो के रुप में आपने दलितों के सामने रखे? मान लीजिये, आप तो दलित समाज के मोहल्ले में सरकारी विद्यालय खुलवाना चाहते हैं, परन्तु वहां पहले से ही आपकी ही पार्टी के बड़े नेता का ऊंची फीस वाला प्राईवेट स्कूल है. आपकी पार्टी आपको विद्यालय खुलवाने देगी? आजकल प्राईवेट स्कूल मनमानी फीस वसूल कर रहे हैं और महंगी-महंगी किताबें थोप रहे हैं. कहना न होगा कि यह सब नेताओं की मिली भगत बिना संभव नहीं है. क्या आप जनता को इन शिक्षा माफियाओं से मुक्त करा पायेंगे?

यह दलितों का दुर्भाग्य है कि आज उनका रोना रोने वाला कोई नहीं है. जिनसे थोड़ी बहुत आस थी, वे सामाजिक इंजीनियरिंग के चक्कर में ऐसे पड़े कि बैक पर बैक आती गई और आज उनकी डिग्री कैंसिल होने की नौबत आ गई. गर्मागर्म खाने के चक्कर में मुंह जला बैठे, लोगों की आशाओं पर तुषारापात हो गया और हाथी का गणेश हो गया. ये अपने सिद्धान्तों पर अटल रहते तो शायद अच्छा रहता, पर चौबेजी छब्बे जी बनने के चक्कर में दुबे जी रह गए. अब बाबा साहेब की उठी हुई अंगुली को कौन विश्राम दे पायेगा, यह तो भविष्य बतायेगा लेकिन इतना निश्चित है कि सत्ता को पाने के लिये दलितों को एक होना ही पड़ेगा, अन्यथा सत्तर साल निकल गये, सत्तर और निकल जायेंगे.

श्याम सुंदर बैरवा सहायक प्रोफेसर है. संपर्क सूत्रः- 8764122431

1 COMMENT

  1. Hari Prasad Chaudhary
    November 1 at 9:13pm ·

    सरकारें भरोसा लायक नहीं हैं |
    ०००००००००००००००००००
    खबर जनवरी २००९ की है | अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिये आरक्षणकी समाप्ति की आखिरी कील कांग्रेस सरकार ने जनवरी २००९ में ही ठोंक दी थी और रही बची कसर बीजेपी सरकार ने पूरी कर दी | दैनिक जागरण की संपादकीय दिनांक ३० जनवरी २००९ के अनुसार, भलाई का नाम बंधुत्व है | सकारात्मक पहल | केंन्द्र सरकार ने आईआईटी और आईआईएम सरीखे ४७ उत्कृष्ट शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों की नियुक्ति में अनुसूचित जातिऔर अनुसूचित जनजाति के लिये आरक्षण न लागू करने का जो निर्णय लिया वह निश्चित रूप से सही दिशा में उठाया गया कदम है, लेकिन देखना यह होगा कि वोट बैंक के संकीर्ण स्वार्थों से प्रभावित राजनीतिक दल इस पर कैसी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं | सूचना क्रान्ति और वैश्वीकरण के इस युग में यदि ग्यान आधारित अर्थव्यवस्था बनने के अपने सपने को पूरा करना चाहता है तो उसे हर हाल में यह सुनिश्चित करना होगा कि उच्च शिक्षा से संबंधित उसके संस्थान गुणवत्ता का शीर्ष स्तर प्राप्तकरें | उच्च शिक्षण संस्थानों में गुणवत्ता का ऊंचा स्तर सुनिश्चित करने के लिये यह आवश्सक है कि उनमें पठन पाठन का एकमात्र मानक योग्यता हो | उचित यह होगा कि सिर्फ उत्कृष्ट शिक्षण संस्थान ही नहीं, बल्कि उच्च शिक्षा से संबंधित जो भी संस्थान हैं उनमें छात्रों के प्रवेश अथवा शिक्षकों की नियुक्ति में किसी प्रकार के आरक्षण की जगह न हो | यदि उच्च शिक्षा के संस्थानों में पठन पाठऩ के लिये योग्यता के मानकों का सही तरह अनुपालन नहींहोगा तो न केवल इन संस्थानों के स्तर में गिरावट आएगी, बल्कि देश और समाज की प्रगति भी प्रभावित होगी |हमारे नीति नियंताओं को इसपर ध्यान देना चाहिये कि समाज के पिछड़े और वंचित वर्ग का उत्थान इस ढंग से क्यों नहीं हो पा रहा कि वे उच्च शिक्षण संस्थानों में अध्ययन अथवा अध्यापन के लिये योग्यता के किन्हीं निर्धारित मानकों को पूरा करते हुये प्रवेश कर सकें | बेहतर हो कि वे इस पर विचार करें कि उच्च शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण के जरिए पिछड़े और वंचित वर्गों के सामाजिक उत्थानों की जो कल्पना की गई है उसमें कोई विशेष उपलब्धि क्यों हासिल नहीं हो पा रही |
    इसमें संदेह है कि राजनीतिक दल शिक्षा व्यवस्था में आरक्षण की बुनियादी खामियों को दूर करने के लिए आगे आएंगे | शिक्षण संस्थानों में आरक्षण के संदर्भ में किसी से छिपा नहीं कि इसके बहाने राजनीतिक दल वास्तव में अपने हितों की पूर्ति करना चाहते हैं | . . . . |
    क्या शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता एससी और एसटी के छात्रों के प्रवेश लेने और एससी व एसटी के शिक्षक होने से गिर गई है | देश गुलाम तब हुआ जब क्षत्रिय राजा थे |सोमनाथ मंदिर भी क्षत्रियों और पंडों की हठधर्मिता के कारण लुटा | जिसे तेजोमहल और राममंदिर कहते हैं क्षत्रियों के राज में ही तोड़ डाले गए, तब कुछ भी नहीं कर पाए | पाकिस्तान रोज जवानों को शहीद बना रहा है, क्या कर पा रहे हैं, इसमें दलित कितने दोषी हैं | और और . . . . | दलितों को सोचना और ध्यान देना नहीं चाहिए | रवीशकुमार का प्राइमटाइम देखना चाहिए | यदि दलित कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं तो मौत सामने खड़ी है | भवतु सब्ब मंगलम् |

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