जातीय राजनीति के शिकार सुपर 30 के आनंद कुमार

कौन कितना प्रतिभाशाली है, ये उस व्यक्ति के काम की तुलना में उसकी जाति से समझना लोग ज़्यादा प्रामाणिक मानते हैं. जब व्यक्ति सवर्ण नहीं हो और उसकी प्रतिभा की चर्चा हो रही हो तो उन्हीं सवर्णों के कान खड़े हो जाते हैं. लोग उसकी क़ाबिलियत पर सवाल खड़ा करने लगते हैं.” यह भारतीय समाज की सच्चाई है. दुनिया भर में अपनी प्रतिभा के झंडे गाड़ने वाले सुपर 30 के संस्थापक आनंद कुमार इन दिनों भारतीय समाज की इसी कड़वी सच्चाई से जूझ रहे हैं.
आनंद पटना से 25 किलोमीटर दूर देवधा गांव के रहने वाले हैं. जाति की दृष्टि से यह गांव भूमिहार और कहार बहुल है. इस गांव को लोग जितना इस गांव के नाम ‘देवधा’ से जानते हैं उससे ज़्यादा इसे आनंद कुमार के गांव के रूप में जाना जाता है. दुनिया आनंद की प्रतिभा के लिए उन्हें सलाम करती है. आनंद के पढ़ाए सैकड़ों स्टूडेंट्स दुनिया भर की नामी गिरामी कंपनियों में काम कर रहे हैं, जहां लोग उन्हें आनंद सर के स्टूडेंट्स के नाम से जानते हैं. लेकिन आनंद के अपने ही गांव के ज्यादातर सवर्णों को आनंद पर गर्व नहीं, जलन है. वो आनंद को एक महान प्रतिभाशाली इंसान के तौर पर नहीं बल्कि पर एक ‘कहार’ के बेटे के तौर पर देखते हैं. और आज भी खुद को जाति के आधार पर आनंद से श्रेष्ठ मानते हैं.
आनंद कुमार ने भूमिहार जाति में शादी की है.
गांव के कुछ लोग इस बात को लेकर आनंद कुमार पर नाराज रहते हैं कि उनके गांव के किसी बच्चे का आज तक सुपर 30 में एडमिशन नहीं हुआ. न किसी भूमिहार का और न ही आनंद की अपनी जाति कहार का. हालांकि आनंद से रामानुजम क्लास में पढ़ने वाले युवक का तर्क हैं कि उनके गांव का कोई स्टूडेंट सुपर 30 की प्रवेश परीक्षा में पास ही नहीं हुआ, तो ऐडमिशन कहां से होगा. आनंद कुमार भी इस मामले पर साफ कर चुके हैं कि वो अपने गांव के नाम पर बिना प्रवेश परीक्षा पास किए किसी का सुपर 30 में एडमिशन नहीं ले सकते.
आनंद कुमार पर बिहार में बहुत पहले से सवाल उठता रहा है, लेकिन यह हमला तब और बढ़ गया है जब आनंद पर बायोपिक बन रही है, जिसमें आनंद कुमार का किरदार मशहूर अभिनेता ऋतिक रोशन कर रहे हैं. लेकिन आनंद कुमार का सफर कोई एक दिन का सफर नहीं है. वह बेहद गरीबी से उठकर, संघर्ष कर यहां तक पहुंचे हैं. उन्होंने जीवन में तमाम अभाव झेले, आर्थिक दिक्कतों की वजह से वो कैंब्रिज युनिवर्सिटी में दाखिला नहीं ले पाएं.
1993 में आनंद को यूनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज से एडमिशन के लिए लेटर आया. उसे 6 लाख रुपए की तत्काल ज़रूरत थी. मैंने तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव से बात की और कहा कि बिहार का होनहार लड़का है, बहुत नाम करेगा, इसकी आप मदद कीजिए. लालू ने कहा कि आप कह रहे हैं तो ज़रूर मदद करूंगा, उसे मेरे पास भेज दीजिए. मैंने आनंद को कहा कि जाओ लालूजी से मिल लो. वो मिलने गए तो उसे शिक्षा मंत्री के पास भेज दिया गया. शिक्षा मंत्री ने अपने पीए से पांच हज़ार रुपए देने के लिए कहा.” इस घटना से आनंद ने काफी अपमानित महसूस किया.
दरअसल, यह शक नहीं करना है बल्कि टारगेट करना है. ”लोग इस बात को पचा नहीं पाते हैं कि अति पिछड़ी जाति का यह लड़का इतना कैसे कर सकता है. ऐसा नहीं है कि आनंद की कोई स्क्रूटनी नहीं हुई है. मैं नहीं मानता कि वो पिछले 20 सालों से लोगों को बेवकूफ़ बना रहा है. न्यूयॉर्क टाइम्स और जापानी मीडिया ने इस पर एक महीने तक काम किया.”
अगर आनंद के प्रति सवर्णों में पूर्वग्रह को देखना है तो इस उदाहरण से बख़ूबी समझा जा सकता है. वो बताते हैं, ”वशिष्ठ नारायण सिंह की प्रतिभा को अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली. ऐसा इसलिए क्योंकि उनकी प्रतिभा को मौक़ा मिला. मौक़ा इसलिए मिला क्योंकि वो अच्छी फैमिली से भी थे. उनकी शादी भी एक रसूख वाले परिवार में हुई. एक और बात उनके पक्ष में जाती है कि वो सवर्ण हैं. मानसिक स्थिति बिगड़ जाने के कारण वशिष्ठ नारायण सिंह समाज को बहुत दे नहीं पाए. आज भी वो अपनी दिमाग़ी हालत से जूझ रहे हैं.”
सेनगुप्ता कहते हैं, ”वशिष्ठ नारायण सिंह के बारे में बिहार में हर कोई इज़्ज़त से बात करता है जबकि आनंद पर लोग शक करते हैं. आनंद ने बिहार से दर्जनों वैसे बच्चों को आईआईटी तक पहुंचाया जो प्रतिभा होने के बावजूद ग़रीबी के कारण पढ़ नहीं पा रहे थे. आख़िर ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि आनंद पैसे कमाता है, उसने एकाधिकार को चुनौती दी है. ऐसा इसलिए भी कि वो सवर्ण नहीं है.”
आनंद कुमार पर एक आरोप यह भी है कि वो सुपर 30 में पढ़ने वाले स्टूडेंट की सूची जारी नहीं करते हैं. बिहार के मीडिया कर्मियों ने इस बात को खूब उछाला. उनकी मांग है कि आनंद जब सुपर 30 में 30 स्टूडेंट का चयन करते हैं तो उसकी लिस्ट दें और जब आईआईटी का रिजल्ट आता है तब की लिस्ट दें. आख़िर आनंद ऐसा करने से क्यों बचते हैं?
आनंद कहते हैं, ”जहां तक लिस्ट की बात है तो उसे हमने कई बार सार्वजनिक किया है. मैं हर साल सूची जारी करता हूं और अख़बार वालों को देता हूं. इस साल फ़िल्म को लेकर इतना प्रेशर था कि कई चीज़ें नहीं हो पाईं. पटना में कोचिंग वाले बच्चों की ख़रीद फ़रोख्त शुरू कर देते हैं, इस वजह से भी गोपनीयता बरतनी पड़ती है.”
रिजल्ट के पहले भी और रिजल्ट के बाद भी ऐसा किया है. अगर मेरे काम के ऊपर किसी को शक है तो उन्हें मुझसे अच्छा काम करके मिसाल कायम करनी चाहिए. मैंने आज तक किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा और जिस तरह से मैंने पढ़ाई की है उसका दर्द मैं ही जान सकता हूं. मैंने अब तक का जीवन पटना के 10 किलोमीटर के रेडियस में जिया है और यहीं अमरीका, जापान और जर्मनी के पत्रकार मिलने आए. अब अभयानंद जी कई सुपर 30 चलाते हैं और मुझे अच्छा लगता है कि उनके यहां से भी बच्चों का भला हो रहा है.” आनंद यह भी जोड़ते हैं कि जो इंसान हार जाता है वही शिकायत करता है और उन्हें कभी हार नहीं मिली इसलिए किसी की शिकायत करने का कोई मतलब नहीं है.
तमाम आरोपों पर आनंद थोड़े झुंझला भी जाते हैं. कहते हैं, ”मैं हर आरोप का जवाब दूं या बच्चों को पढ़ाऊं? कोई ग़रीब का बच्चा या जिसकी कोई पहचान नहीं है उसका बच्चा आगे बढ़ता है तो उसे परेशान किया जाता है. लोग विरोध कर रहे थे, लेकिन जब फ़िल्म बनने की बात आई तभी क्यों कैंपेन चलाया गया. क्यों लोग कहने लगे कि उन्हें भी फ़िल्म में लाया जाए. मेरे लोगों को फ़ेसबुक पर लिखने का आरोप लगाकर जेल में बंद कर दिया गया. मैं तब भी चुप हूं. वक़्त ही न्याय करेगा.”
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– यह रिपोर्ट बीबीसी संवाददाता रजनीश कुमार द्वारा बीबीसी के लिए लिखी गई रिपोर्ट पर आधारित है. इसमें हेडिंग के अलावा बेहद मामूली फेरबदल के साथ ‘दलित दस्तक’ में साभार प्रकाशित किया जा रहा है.
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यह कवर स्टोरी, दलित दस्तक के ……… अंक में प्रकाशित हुई थी

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