छात्र राजनीति में उभरते आदिवासी नेतृत्व को सलाम

द वायर

इस ख़बर को ज़रूर ध्यान से सुना/पढ़ा जाना चाहिए. ज़मीनी स्तर पर उभर रही जम्हूरियत की इस ताज़ा हवा को महसूस किया जाना चाहिए. उभरते आदिवासी युवा नेतृत्व को सलाम किया जाना चाहिए और उन्हें भावी राजनीति के दावेदारों के तौर पर शुभकामनाएं दी जानी चाहिए.

ख़बर है पश्चिमी मध्य प्रदेश और उससे लगे राजस्थान के आदिवासी बहुल जिलों में हुए छात्रसंघ चुनाओं में आदिवासी छात्र संगठन की ऐतिहासिक जीत हुई है. मध्य प्रदेश के लगभग 15 ज़िलों के 25 महाविद्यालयों में कुल मिलाकर 162 छात्र प्रतिनिधियों ने बहुत समय के संघर्ष के बाद पहली बार हुए छात्रसंघ चुनावों में जीत का परचम लहराया है. इनमें से पचास प्रतिशत लड़कियां हैं. राजस्थान में भी आदिवासी छात्र संगठन के प्रतिनिधियों ने कई महाविद्यालयों में जीत हासिल की है.

बाबा साहब आंबेडकर के जन्मदिवस 14 अप्रैल, 2015 में बड़वानी ज़िले के सेंधवा ब्लाक में 30-40 आदिवासी छात्रों के साथ आदिवासी मुक्ति संगठन व अन्य समविचारी शैक्षिक प्रयोगों के मार्गदर्शन में औपचारिक रूप से गठित हुए आदिवासी छात्र संगठन ने पहले सेंधवा के महाविद्यालयों में आदिवासी छात्रों के साथ जारी भेदभाव, छात्रावास, शिक्षा की गुणवत्ता और लड़कियों के शौचालयों की सुविधा से महाविद्यालय प्रशासन के साथ संघर्ष किया और बहुत कुछ हासिल हुआ.

आदिवासी छात्र संगठन को समुदायों का समर्थन मिला और पहली पीढ़ी के छात्र विशेष रूप से लड़कियों के लिए उच्च शिक्षा के रास्ते थोड़ा आसान हुए. एक साल बाद 14 अप्रैल, 2016 को भोपाल में यही संगठन राज्य स्तरीय संगठन बना. वर्तमान में इसके अध्यक्ष रामू टेकाम हैं, उपाध्यक्ष प्रकाश बंडोड, सचिव महेश भावर, संगठन महामंत्री धर्म सिंह बस्कोले हैं जो आदिवासी मुक्ति संगठन से संबद्ध हैं.

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इस जीत के मायने क्या हैं? यह जीत असल में शोषण के विरुद्ध पैदा हुई चेतना की विरासत का, वर्तमान दौर की सबसे प्रमुख चुनौतियों से निपटने का, रास्ता है. राजनैतिक चेतना की भी एक संपन्न विरासत खड़ी की जा सकती है आज इस बात से पूरी तरह मुतमईन हुआ जा सकता है.

भीमा नाइक, खाज्या नाइक, टांटिया भील, मामा बालेश्वर दयाल आदि के नेतृत्व में अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ बनी राजनैतिक चेतना का सफ़र उनके साथ ख़त्म नहीं हुआ, बल्कि झाबुआ में खेड़ुत मजदूर चेतना संगठन के रूप में उत्तर भारत में संभवतया पहले जन संगठन के रूप में उभर कर आया.

इसका संघर्ष आज़ाद भारत में वन विभाग के रूप में कठोर औपनिवेशिक सत्ता से शुरू हुआ जो आज भी देश भर में आदिवासी इलाकों में बदस्तूर जारी है. बाद में और इसी जन संगठन के समानांतर आदिवासी मुक्ति संगठन ने बड़वानी और बुरहानपुर में आदिवासी समाज के आत्म-सम्मान और संसाधनों पर उनके सांवैधानिक अधिकारों के लिए संघर्ष शुरू किया और शोषण के तमाम मठों, गढ़ों और सत्ता प्रतिष्ठानों को पुरजोर चुनौती दी.

इसके साथ ही नर्मदा बचाओ आंदोलन, हालांकि जिसे विस्थापन के खिलाफ संघर्ष के रूप में ही महत्व ज़्यादा मिला, लेकिन इस महत्वपूर्ण आंदोलन ने आदिवासियों को विकास के पूंजीवादी प्रारूप और विनाश की कार्यवाही बताने का काम बखूबी किया.

इसी क्षेत्र में जागृत आदिवासी संगठन ने बड़वानी जिले में ही विभिन्न मोर्चों पर आदिवासी समुदायों के शोषण को लेकर जागृति पैदा की और आज भी सक्रियता से कर रहा है.

दिलचस्प यह देखना है कि जिन प्रमुख जन संगठनों और जन आंदोलनों का ज़िक्र किया गया है, वो सब अभी भी नए युवा नेतृत्व को पैदा कर रहे हैं और आज के दौर की उभरती चुनौतियों को अपने नज़रिये से जवाब दे रहे हैं.

आदिवासी मुक्ति संगठन के नेता गजानन भाई जो इन छात्रसंघ चुनाओं के दौरान आदिवासी छात्र संगठन के लिए ढाल बन कर खड़े रहे, बताते हैं कि ‘कैसे सत्तासीन दल के छात्र संगठन को हराना मुश्किल रहा. छात्र-छात्राओं और उनके परिजनों को खुले आम धमकियां दी गईं. धन का प्रलोभन दिया गया और चुनाव के दौरान हिंसा की तैयारी की गई.

भाजपा के दिग्गज नेताओं ने इसमें सक्रियता से दिलचस्पी ली और तमाम सरकारी एजेंसियों ने किसी भी सूरत में आदिवासी छात्र संगठन को हारने की कोशिश की.’

गजानन भाई ने बताया कि ‘दो निर्विरोध जीतीं कक्षा प्रभारी लड़कियों ने हालांकि अंतिम समय पर धमकियों से डरकर वोट नहीं किया, शायद हम उन्हें सुरक्षा की गारंटी नहीं दे पाए इसका अफ़सोस है.’

आदिवासी छात्र संगठन के महामंत्री धरम सिंह का कहना कि ‘यह एक ऐतिहासिक मौक़ा है. एक दौर था जब गांव से निकलकर आदिवासी किसी कस्बे में जाता था तो उसे लंगूर, बंदर कहा जाता था और ठगी और शोषण की इन्तिहा थी.’

हालांकि अब परिस्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं. आज जब सेंधवा या राजपुर जैसे कस्बों में जाकर देखते हैं तो इन जन संगठनों के प्रभाव का पता लगता है. क्या थाना, क्या तहसीलदार, क्या कलेक्टर सभी अपने दायरे में रहकर पूरे सम्मान और प्रतिष्ठा से इन समुदायों से संवाद करते हैं.

व्यापारी वर्ग ने दोस्ती का संबंध बनाया है और भेदभाव की घटनाएं नगण्य हुई हैं. आज जो आत्मविश्वास, आत्मसम्मान और गरिमा इन समुदायों ने सतत संघर्ष से हासिल की है उसका अगला चरण आदिवासी छात्र संगठन हमारे सामने हैं.

ऐसे समुदायों के लिए जहां हमारी आज की आधुनिक शिक्षा प्रणाली किसी काम की नहीं थी, क्योंकि यह आदिवासी बच्चों में केवल और केवल अपने समाज व अपनी जीवन पद्धति के प्रति हीनताबोध भरने का ही काम करती थी, आज पूरी धमक के साथ अपनी आदिवासियत को अपनी गरिमा मानते हुए तथाकथित मुख्यधारा के लिए आरक्षित जगहों पर अपने दावे ठोक रहे हैं. अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं और उसकी धमक को सुना जा रहा है.

यह इन पूर्ववर्ती संघर्षों की ही विरासत है कि हमारी आज की विघटनकारी शिक्षा प्रणाली ने छात्रों को अपने समुदाय की मौलिक ज़रूरतों से दूर नहीं कर पाया, बल्कि सालों के संघर्षों से निकली मांगों को और मजबूती ही दी.

यह देखना भी बहुत रोमांचित करता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी हज़ार हज़ार बेनामी कंपनियां इन इलाकों में सघन काम रहीं हैं.

दिसंबर, 2015 में इस इलाके के एक गांव मटली (राजपुर) में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भगवान इंद्र का इकलौता मंदिर बनाने की चेष्टा की जिसे पूरी राज्य सरकार ने बढ़-चढ़कर सहयोग किया. खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इस मंदिर में मूर्ति स्थापना के लिए आने वाले थे, पर यह इसी ऐतिहासिक आदिवासी चेतना का बल था कि इन समुदायों ने इस सरकार प्रायोजित हिंदूकरण के आयोजन को पूरी तरह नकार दिया.

इस खबर को इन पूरे ऐतिहासिक संदर्भों में देखना इसलिए भी ज़रूरी हो जाता है कि देश में जिस तरह से सांप्रदायिक लहर चल रही है और तमाम समुदायों को जबरन हिंदूकरण की प्रक्रिया में धकेला जा रहा है, संस्थानों को खुलेआम सरकार के संरक्षण में भगवा रंग में रंगा जा रहा है. ऐसे में एक सतत चेतना का निर्माण कर रहे जन संगठनों की भूमिका को ज़्यादा तवज्जो दी जानी चाहिए ताकि आज की चुनौतियों को सामूहिक चेतना की विरासत के आधार पर जवाब दिया सके.

(सत्यम श्रीवास्तव सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हैं.) द वायर से साभार

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