मुंबई। मुंबई में 18 जवानों और 166 निर्दोष लोगों की जान लेने वाले पाकिस्तानी आतंकी अजमल कसाब तो फांसी पर टंग गया, मगर जाते-जाते उसने बांद्रा के गर्वमेंट कॉलोनी में रहने वाली 19 वर्षीय देविका रोटवानी की जिंदगी को बदल कर रख दी. देविका ही वह मुख्य गवाह हैं, जिनकी गवाही को अदालत ने मान्य किया और कसाब को फांसी की सजा सुनाई.
2006 में मां को खो चुकी देविका तब मात्र नौ साल की थी, जब उसने कसाब को आंखों के सामने सीएसटी स्टेशन पर खून की होली खेलते हुए देखा था. देविका बताती हैं, ‘आंतकी कसाब ने मेरी जिंदगी बदल कर रख दी है. दुनिया हमें कसाब की बेटी तक कहने लगी, जो मुझे बहुत बुरा लगता है.’
देविका बताती हैं, ‘उस शाम मैं अपने पिता नटवरलाल रोटवानी और छोटे भाई जयेश के साथ बड़े भाई भरत से पुणे मिलने जा रही थी. हमलोग सीएसटी के प्लैटफॉर्म 12 पर खड़े होकर ट्रेन का इंतजार कर रहे थे. अचानक लोगों के चीखने, चिल्लाने और भागो-भागो की आवाजें आने लगीं. बीच-बीच में गोलियों की तेज आवाजें और धमाके सुनाई देने लगे. पिता ने मेरा हाथ पकड़ा और भीड़ के साथ भागने की कोशिश करने लगे. मगर अचानक मुझे गोली लगी और मैं वहीं गिर पड़ी.
वह कहती हैं, ‘जब आंखें खुलीं, सामने एक व्यक्ति को हंसते हुए लोगों पर गोलियां चलाते हुए देखा. वह कसाब था, जो अंधाधुंध गोलियां बरसा रहा था. कुछ देर बाद मैं फिर बेहोश हो गई और होश आने पर खुद को पहले कामा और बाद में जेजे अस्पताल में पाया. सौभाग्य से पिता और भाई को गोली नहीं लगी थी. मगर, जेजे अस्पताल में ढाई महीने तक चले इलाज के दौरान मेरे साथ-साथ दूसरे जख्मियों के ड्रेसिंग बदलने के चक्कर में भाई बीमार हो गया. उसके गले में संक्रमण हो गया, जबकि मेरे पैरों की छह बार सर्जरी करानी पड़ी. थोड़ा सामान्य होने पर हमलोग मुंबई से राजस्थान चले गए.’
बकौल देविका, ‘अचानक एक दिन मुंबई पुलिस का फोन आया कि आप कसाब के खिलाफ अदालत में गवाही देंगी? पहले तो उस आतंकी का खौफनाक चेहरा आंखों के सामने आते ही मैं सहम गई, मगर उसकी बर्बरता और खूंखार हंसी से लबरेज गोलीबारी ने हौसला बढ़ा दिया. मैंने गवाही देने के लिए हामी भर दीं. वैसाखी के सहारे में अदालत में पहुंची, जहां मेरे सामने तीन लोगों को पहचान के लिए लाया गया. उनमें से एक कसाब भी था. मैं जज के सामने उसको पहचान गई. दिल तो किया की वैसाखी उठाकर उस पर हमला कर दूं, मगर चाहकर भी कर नहीं पाई.’
कसाब पर गवाही देने के बाद देविका का जीवन बदल गया. वह कहती हैं, ‘कसाब की पहचान लिए जाने की बातें जब मीडिया से होते हुए रिश्तेदारों और पड़ोसियों तक पहुंचीं, तो सब का रवैया बदल गया. मेवे के कारोबारी पिता को होलसेलरों ने माल (मेवा) देना बंद कर दिया. स्कूल वालों में मेरा नाम काट दिया. पड़ोसियों ने दूरी बना ली. कर्जा देने को कोई तैयार नहीं था. लोगों को डर था कि कहीं आंतकवादी उनके घरों, दुकानों या रिश्तेदारों पर हमला न कर दें. मेरी हालत गुनहगार जैसी हो गई, मगर पिता और भाई ने मेरा हौसला बढ़ाए रखा, क्योंकि मैं देश के लिए काम कर रही थीं. एक एनजीओ की मदद से सातवीं में दाखिला मिल गया.’
देविका बताती हैं कि कारोबार बंद होने से आर्थिक तंगी आ गई. मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक को ट्वीट कर स्थिति बताई. मंत्रालय के चक्कर काटें, लेकिन किसी ने मदद नहीं की. बड़े भाई की आमदनी से घर खर्च चल रहा है. फोर्ट स्थित सिद्धार्थ कॉलेज से 11वीं की पढ़ाई कर रही देविका आईपीएस बनने का सपना देख रही हैं. मगर, उसे मलाल है कि उसने किसके लिए यह कदम उठाया, जिसके चलते आज उसका परिवार न घर का रहा है, न घाट का. हालांकि, दर्जनों ‘अवॉर्ड’ उसे देश सेवा के लिए प्रेरित करते हैं.
देविका बताती हैं, ‘जेजे अस्पताल में उसका इलाज काफी लंबा चला. मां के नहीं रहने पर भाई और पिता देखभाल करते थे. इसलिए वे बांद्रा (ईस्ट) के कदम चॉल स्थित भाड़े के घर नहीं जाते थे. मकान मालिक को लगा कि देविका और उसके परिजन आतंकी हमले में मारे गए हैं. इसलिए उन्होंने देविका के परिजन की खोजबीन किए बिना उसके सामान बेच दिए, जिसमें जिंदगी भर की जमा-पूंजी और दस्तावेज रखे हुए थे. सामान के नाम पर बस एक पेटी मिली, जो खाली थी.
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